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________________ चारों ओर दृष्टिपात कर महाबल बोला-'इस मंदिर के ऊपर शिखर पर तू कहीं छिप जा। चल, मैं तेरे लिए छिपने का स्थान बना देता हूं।' दोनों मंदिर के ऊपर गए। महाबल ने शिखर के एक पत्थर को हटाया। उस पोलाल में चोर को छिप जाने के लिए कहा। चोर उसमें समा गया, छिप गया। महाबल पत्थर ज्यों का त्यों रखकर नीचे आ गया। सूर्य अस्ताचल में जा छिपा। पक्षियों का मधुर कलरव शान्त हो गया। प्रकाश और अंधकार का संग्राम चरम सीमा पर था। मलया अभी पहुंचेगी, इस विचार से महाबल ने उस स्तंभ को एक ओर रखा और साथ वाली सारी सामग्री एक पोटली में बांध दी। उसकी दृष्टि मंदिर के प्रांगण से कुछ दूरी पर स्थित एक वटवृक्ष पर पड़ी। वह वहां गया। वटवृक्ष विशाल था। उसके स्कंध (तने) में पोलाल थी। उसने सारा सामान वहां रख दिया और मलया रानी के साथ आकर क्या करती है, इसे देखने के लिए वटवृक्ष पर चढ़कर बैठ गया। जिस शाखा पर वह बैठा था, वह बड़ी थी। वहां से मंदिर का बहुत बड़ा भाग दीख रहा था। महाबल वटवृक्ष पर बैठा-बैठा विचार कर रहा था। उसने सोचा-प्रकाश और अंधकार के बीच अनंतकाल से संग्राम होता रहा है। कभी अंधकार जीतता है और कभी प्रकाश । प्रातःकाल के समय अंधकार हारता है और प्रकाश जीतता है, किन्तु रात्रि में प्रकाश हारता है और अंधकार जीतता है।' विचारमग्न बने हुए महाबल को आहट सुनाई दी। उसने मंद प्रकाश में देखा कि मलया और रानी दोनों आ रहे हैं। मलया एक नौजवान की भांति रानी कनकावती का हाथ थामे आ रही थी। उसकी गति में मस्ती थी। रानी कनकावती की गतियां भी वासना की उर्मियों से भरी हुई थीं। दोनों वटवृक्ष के पास से गुजरे तो रानी कनकावती बोली-'अरे ! यह तो भट्टारिका देवी का मंदिर है !' 'मैं कुछ नहीं जानता। मुझे तो यह मंदिर निर्जन और एकान्त लगता था।' 'इस मंदिर में कोई नहीं आता। केवल मृगसिर के मास पुरवासी लोग यहां आते हैं।' कनकावती ने कहा। दोनों मंदिर के प्रांगण से गुजरे और ऊपर चढ़ने लगे। महाबल देख रहा था । पर अब शब्द पूरे सुनाई नहीं दे रहे थे। कनकावती बोली-'प्रिय ! यहां कोई है तो नहीं ?' 'कोई हो, ऐसा नहीं लगता फिर भी मैं देख लूं...' कहकर सुन्दरसेन मन्दिर में गया और मन्दिर के पिछले भाग में एक बड़ी पेटी को देखकर चौंका। महाबल मलयासुन्दरी १३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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