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________________ महाबल को इन सारी कलाओं का ज्ञान था। वह चित्रकला भी जानता था। परन्तु उस स्तंभ पर उसने कोई चित्र नहीं बनाया, क्योंकि उसमें समय लगने का भय था, इसलिए केवल तरंगाकार रेखाएं खींचकर उसने स्तंभ को आकर्षक बना दिया था। जब स्तंभ का कार्य पूरा हुआ, तब अपराह्न का समय पूरा हो रहा था। सूर्य अस्ताचल की ओर गतिमान था। आकाश में रक्तवर्ण उभर रहा था। ठीक इसी समय मंदिर के पिछले भाग में किसी के पदचाप सुनाई दिए। महाबल तत्काल खड़ा हुआ। उसने देखा कि पांच मनुष्य एक बड़ी प्रेटी लेकर आए हैं। उन पांचों में एक सरदार जैसा लग रहा था। उसकी आकृति से प्रतीत हो रहा था कि यह उन पांचों में मुखिया है। वह बोला---'अरे कालिया ! तुझे इस पेटी की सार-संभाल करने के लिए यहीं बैठे रहना है हम नगरी में जा रहे हैं। "विलंब से आएं तो भी चिन्ता मत करना।' कालिया ने सिर झुकाकर अपनी सहमति प्रकट की। - शेष चारों व्यक्ति तत्काल वहां से चले गए। महाबल ने सोचा-ये चोर हैं और कहीं से चोरी करके आए हैं। यह व्यक्ति यहां बैठा रहेगा तो मेरी योजना। संध्या बीतते ही मलया आएगी... साथ में रानी कनकावती भी होगी। ऐसा सोचकर महाबल ने चोर की भाषा में संकेत किया और कालिया के पास गया। कालिया ने इस तेजस्वी युवक को देखकर कहा-'अरे ! तू भी हमारी ही जाति का लगता है !' 'हां, मित्र ! मैं आधी रात के पश्चात् नगरी में जाऊंगा' 'तुमने यह माल कहां से चुराया ?' 'चार कोस की दूरी पर एक गांव है। वहां हमने चोरी की थी। मित्र ! मेरा एक काम करोगे?' 'बोल, क्या काम है ? 'इस पेटी का ताला मेरे से नहीं खुल रहा है...' 'अरे ! इसमें क्या रहस्य है ?' यह कहकर महाबल अपने पास लाये हुए औजारों में से एक औजार ले आया और तत्काल ताला खोल डाला। कालिया ने पेटी खोली। उसमें कुछ वस्त्र थे और अलंकारों की एक पोटली थी। कालिया ने अलंकारों की पोटली को बाहर निकालकर पेटी बंद कर दी। फिर उसने महाबल से कहा-'हमारा सरदार दुष्टहै "एक वर्ष से मैं उसके साथ है। परन्तु उसने मुझे कुछ भी नहीं दिया है।' 'तो तू भी. उसे पाठ पढ़ा। पोटली लेकर भाग जा।' 'परन्तु ऐसा करने पर वह मेरे पदचिह्नों की खोज से मुझे पकड़ लेगा। तुम आज रात भर कहीं छिपा दो। मैं तुम्हारा उपकार जीवन भर नहीं भूलूंगा।' १३८ महाबल मलयासुन्दरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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