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________________ २७. हार मिल गया रथ बंद था। बाहर से ऐसा प्रतीत नहीं हो पाता था कि अन्दर कोई होगा । - रथ को धीरे-धीरे ले जाना । कहां जाना है, सुन्दरसेन ने रथवाहक से कहायह तो तुम जानते ही हो ।' 'हां, श्रीमन् ! आप आराम से बैठें ।' रथवाहक ने कहा । रानी ने मन-ही-मन सोचा - सुन्दरसेन कौन है ? इसकी आकृति मुझे परिचित-सी लगती है । यह मेरी अपरपुत्री मलया जैसा है । उसकी आकृति और इसकी आकृति में कितना सादृश्य है ! अरे, वह स्त्री, यह पुरुष ! होता है, संसार विचित्र है । आकृतियां मिलती हैं । रानी सुन्दरसेन की गोद में सिर रखकर बोली- 'प्रिय ! आज मैं अत्यन्त सुखी हूं ।' मलया रानी के मस्तक पर हाथ फेरने लगी । रथ आगे से आगे चला । इधर महाबल अपनी सारी तैयारी संपन्न कर, सारा सामान ले भट्टारिका देवी के मंदिर में आ गया। उसने महाराजा से मंत्र की आराधना का बहाना बनाकर प्रस्थान किया था । महाराजा को इसके अभिनय पर तनिक भी सन्देह नहीं हुआ था क्योंकि इसने जो कहा, वह प्रत्यक्ष होता जा रहा था । जब वह भट्टारिका देवी के मंदिर में पहुंचा तब वहां कोई नहीं था । उसने मिष्टान्न का भोजन किया और अगले दिन की तैयारी करने लगा । उसको देखकर उसके मन मंदिर के एक कोने में एक पोला स्तंभ था । में एक कल्पना उभरी थी और आज उस कल्पना को सारी तैयारी करके आया था । मूर्त रूप देने के लिए वह उसने सबसे पहले उस स्तंभ को बीच में से चीर डाला, फिर एक भाग को कपाट का रूप देकर, भीतर एक जंजीर डाल दी थी कि भीतर में रहा हुआ मनुष्य उस जंजीर को कपाट में डाल दे तो फिर कपाट खुले ही नहीं । यह कार्य पूरा कर उसने स्तंभ को विविध प्रकार के रंगों से रंग डाला । महाबल मलयासुन्दरी १३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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