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फिर दोनों अलग हो गए। दोनों के चित्त एक-दूसरे के मिलन से हर्षित ह रहे थे।
महाबल दुकान की ओर आया। मलया एक मस्त युवक की भांति अन्य दिशा में चली गई।
उसने कुछ वस्त्र खरीदे। कमरपट्ट, कंचुकीबंध तथा अन्यान्य वस्तुएं ले वह मगधा के भवन की ओर गयी।
सभी सुन्दरसेन के वेश में मलया की प्रतीक्षा कर रहे थे। उसको आते देख सभी प्रसन्न हुए। मगधा ने सुन्दरसेन से कहा- 'मैंने मेरी प्रिय सखी वल्लभा से सारी बात जान ली है। वह आपके साथ राजगृह जाने के लिए तैयार है। श्रीमन् ! ध्यान रखें । मेरी सखी बहुत कोमल और संवेदनशील है। आप उसके सुख-दुःख में ।'
बीच में ही मलया बोली-'देवी ! आप चिन्ता न करें। मैं उसको अपनी प्रेयसी बनाकर रखूगा। उसका कष्ट मेरा कष्ट होगा। उसका सुख मेरा सुख होगा। वह मेरी, मैं उसका।'
इतने में ही एक बंद रथ वहां आ पहुंचा।
मलया ने कहा-'देवी ! समय हो गया है। अब मुझे आपसे विदा लेनी होगी। यहां से जाने की इच्छा ही नहीं होती, पर जाना पड़ रहा है। फिर कभी मैं इधर आया तो आपके साथ रात बिताना नहीं भूलूंगा।' ।
रानी कनकावती ने अपना पूरा साज-सामान रथ में रखा। उसने अपने आभूषणों की पेटी भी साथ में ले ली।
रथ गतिमान हुआ।
१३६ महाबल मलयासुन्दरी
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