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________________ यहीं ठहरें।' मलया बोली---'देवी ! मुझे यहां रात रहना है तो आपके योग्य उपहार भी देना पड़ेगा, अन्यथा मन उस मस्ती में नहीं आएगा । अब मुझे जाना ही पड़ेगा। मैं शीघ्र ही लौट आऊंगा।' __ मलया वहां से चली। सोपानवीथी से नीचे उतरने लगी। रानी कनकावती ने सुन्दरसेन के जाने की बात सुनी। उसने सुन्दरी के साथ सन्देश कहलाया और अपने खंड में उसे बुला लिया। कनकावती मलया को लेकर केलिगृह में गयी। एक आसन पर बिठाकर कहा-'प्रिय ! आज आप मेरी भावना पूरी करेंगे ?' 'कहो।' 'मेरा मन आपमें उलझ गया है। मैं चाहती हूं कि आप मेरे बनकर यहां रहें।' 'देवी ! मेरे मन की बात आपने कह दी। जब से मैंने आपको देखा है, मेरा मन आपके यौवन में अटक गया है। परन्तु...' 'परन्तु क्या, कुमार? मैं आपकी बनकर रहना चाहती हूं । आज रात आप यहीं मेरे कक्ष में रहें।' 'देवी ! नर-नारी के मिलन का आनंद एकांत और निर्जन में ही आ सकता 'हां।' 'यह भवन इसके लिए उचित स्थान नहीं है। भवन की प्रत्येक शय्या अनेक पुरुषों के स्पर्श से विषाक्त बन चुकी है। देवी ! यदि आप जीवन की रति का सच्चा आनंद लेना चाहती हैं तो मेरे साथ एकांत में चलें, जहां प्रकृति का मधुर वातावरण आनंद के गीत गाता है।' 'ऐसा स्थान ?' 'अभी जब मैं नगर से यहां आ रहा था तब एक स्थान दृष्टि में पड़ा। वह नीरव और शांत स्थल था। वहां चलेंगे।' 'किन्तु...' 'आप क्यों डरती हैं। कोई संशय न करें।' 'परन्तु लोकदृष्टि से...' 'इसको मैं जानता हूं। जिसको मैं अपनी प्रेयसी बनाकर ले जाऊंगा, क्या मैं उसका दायित्व नहीं निभाऊंगा? मध्याह्न के बाद हम दोनों एक रथ में बैठकर उस स्थान पर जाएंगे और मधुर यामिनी वहीं बिताएंगे।' 'तो वनप्रदेश में ..?' 'मुक्त-विहार के लिए मुक्त प्रकृति का होना आवश्यक है। वह भवन सुन्दर है, किन्तु मिलन का उत्तम स्थान नहीं है। देवी ! क्या आप मेरे साथ सदा-सदा महाबल मलयासुन्दरी १३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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