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________________ अश्वारोही कर्मचारी आ गया । उसको एकान्त में बुलाकर कहा - 'पृथ्वीस्थानपुर के राजभवन में जाकर इस पत्र को वहां के रक्षक को सौंप आना । पत्र यथास्थान पहुंच जाएगा ।' 'क्या इसका प्रत्युत्तर लाना है ?' 'नहीं' "तेरा पारिश्रमिक तुझे वहां से प्राप्त हो जाएगा।' 'नहीं, महात्मन् ! आपने हमारे महाराजा के प्राण बचाए हैं । मैं कुछ भी नहीं लूंगा। यदि आप मांगें तो मैं अपना मस्तक भी काटकर रख दूं।' उस कर्मचारी ने विनयपूर्वक कहा । महाबल ने उसे बिदाई दी और स्वयं एक शैया पर सो गया । उसके मन में मलय के विचार घूम रहे थे । वह मगधा के यहां गई है या 'नहीं ? वहां वह कनकावती से मिलेगी क्या ? ओह ! वहां गए बिना लक्ष्मीपुंज हार की प्राप्ति नहीं होगी और लक्ष्मीपुंज हार की प्राप्ति के बिना मेरी माता' नहीं - नहीं, मलया चतुर है किसी भी उपाय से वह हार को हस्तगत कर लेगी । महाबल इस प्रकार राजकुमारी की चिन्ता कर रहा था, उस समय मलयासुन्दरी भट्टारिका देवी के मन्दिर में ही थी । अभी तक वह नगरी की ओर नहीं गई थी । 1 महाबल द्वारा भेजे गए वस्त्र और मिष्टान्न प्राप्त हो गए थे। फिर वह स्नान करने के लिए नदी के तट पर गई । स्नान आदि से निवृत्त होकर उसने मिष्टान्न खाया और आराम करने के लिए लेट गई । श्रम की अधिकता के कारण वह तत्काल निद्रादेवी की गोद में चली गई । मध्याह्न के बाद ही वह जागृत हुई थी । उसने तब नगरी की ओर जाने के लिए प्रस्थान कर दिया । जब वह नगरी में पहुंची तब उसने देखा कि सारी जनता अपार हर्ष से हर्षित हो रही है । चारों ओर निमित्तज्ञ की यशोगाथा सुनाई दे रही थी । 1 मलया ने समझ लिया कि महाबल ने पिताश्री और मातुश्री को बचा लिया है । इससे उसका मन भी परम प्रसन्नता की अनुभूति कर रहा था । 1 संध्या बीत चुकी थी । सारा नगर दीपमालिका से जगमगा उठा । उसने मगधा वेश्या के घर की जानकारी की और चलते-चलते मगधा के विशाल भवन के आगे आ पहुंची । भवन के सामने आते ही मलया ने सोचा --- जीवन एक प्रवहमान सरिता के सदृश है । यह आघात-प्रत्याघात सहता हुआ ही आगे गतिमान् होता है । मुझे एक वेश्या के घर आना पड़ेगा, ऐसी कल्पना स्वप्न में भी नहीं थी । ओह ! कर्म की गति बड़ी विचित्र होती है । मलया अन्दर गई । द्वार पर खड़ी परिचारिकाओं ने उसे नया ग्राहक मानकर नमस्कार किया । मलया ने कहा- 'देवी मगधा भवन में हैं ?' महाबल मलयासुन्दरी १२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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