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________________ 'हां, यदि महाराज की आज्ञा हो तो मैं प्रमाण पेश कर सकता हूं।' महाराजा वीरधवल ने तत्काल मस्तक हिलाकर स्वीकृति दी । निमित्तज्ञ बने हुए महाबल ने आंखें बंद कीं । ध्यानस्थ होने का ढोंग रचा । कुछ क्षणों बाद वह बोला- 'महाराज ! जब राजकन्या मृत्यु का वरण करने राजप्रासाद से निकली थी, तब उसने अपने साथ कोई आभूषण नहीं लिये थे । सारे अलंकार यहीं रखकर गई थी। उसकी अंगुली में नामांकित एक मुद्रिका मात्र रह गई थी ।' महामंत्री सुबुद्धि ने तत्काल कहा - 'श्रीमन् ! आपने जो कहा, वह अक्षरशः सही है ।' 'तो आप प्रमाणरूप में यह भी सुन लें कि वह नामांकित मुद्रिका आज रात या प्रातःकाल आपको प्राप्त हो जाएगी ।' यह सुनकर सब अवाक् रह गए। निमित्तज्ञ ने कहा- 'अब मैं आपके समक्ष तीसरा प्रमाण देता हूं | इस नगरी के पूर्व दिशा के नगरद्वार के बाहर परसों प्रातः काल, स्वयंवर में आए हुए राजकुमारों के पराक्रम की परीक्षा करने के लिए, आपकी कुलदेवी छह हाथ प्रमाण का एक सुन्दर और कला से परिपूर्ण एक स्तंभ रख देगी ।' 'स्तंभ ?' राजा ने प्रश्न किया । 'हां, वह स्तंभ आपकी कुलदेवी द्वारा प्रदत्त प्रसाद होगा । उस स्तंभ को आप स्वयंवर के बीच में स्थापित करवाना। उसके सामने वेदिका पर अपने शस्त्रागार " का प्राचीनतम धनुष्य वज्रसार को रखना । उस धनुष्य को उठाकर, उस पर बाण चढ़ाकर, जो राजकुमार या राजा, उस स्तंभ का छेदन करेगा, वही आपकी प्रिय कन्या का पाणिग्रहण करेगा ।' सभी मंत्री बोल उठे -- ' धन्य है आपके ज्ञान को ! धन्य है आपके निमित्त शास्त्र को !' महाबल ने महामंत्री की ओर देखकर कहा - ' जो स्तंभ आपकी कुलदेवी प्रस्तुत करे, उसकी विधिवत् पूजा भी करनी होगी।' महामंत्री ने कहा---' श्रीमन् ! आपको ही पूजा - विधि संपन्न करनी होगी... आपको स्वयंवर सम्पन्न होने तक यहीं रुकना होगा ।' 'क्या आपके मन में संदेह है कि मेरा कथन असत्य होगा ? महामंत्री ! मैं सबके समक्ष यह एलान करता हूं कि यदि मेरे सारे कथन सही न निकलें और राजकन्या स्वयंवर मंडप में आकस्मिक ढंग से प्रकट न हो जाए तो महाराज को जो प्रायश्चित्त करना हो वह करें "मैं अवश्य ही जलती हुई चिता में गिरकर जल मरूंगा ।' • महामंत्री निमित्तज्ञ के चरणों में मस्तक झुकाते हुए बोले- 'महात्मन् ! मुझे महाबल मलयासुन्दरी १२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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