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रात्रि के तीसरे प्रहर में वहां पहुंची और वेश्या के द्वार खटखटाए ।
कहां तो महाराजा वीरधवल की पत्नी कनकावती और कहां वह लज्जाहीन वेश्या !
गधा की मुख्य परिचारिका ने द्वार खोला । कनकावती ने पूछा- 'मगधा क्या कर रही है ?"
'अभी-अभी शयनगृह में गई है ।'
'उसको जगा ।' कहकर कनकावती भवन में प्रविष्ट हुई ।
परिचारिका कनकावती से परिचित नहीं थी। कभी राजा की शोभायात्रा या अन्यत्र कहीं देखा भी हो तो आज उसे चादर में लिपटी होने के कारण पहचान पाना कठिन था । उसने पूछा - 'आपका नाम ?'
'नाम जानने की आवश्यकता नहीं है। तू मुझे पहले एक खंड में ले चल फिर मगधा को जगाकर बता कि तेरी प्रिय सखी महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए आयी है ।'
रानी के स्वर, रूप, आज्ञा देने के ढंग से परिचारिका स्तब्ध रह गई। तत्काल उसने कनकावती को ऊपर के कक्ष में बिठाया और कहा- -'मैं अभी देवी मगधा 'को यहां भेजती हूं ।'
कनकावती मौन रही । परिचारिका चली गई ।
मगधा का भवन अत्यन्त विशाल था । उसके पास बीस-पचीस नव यौवनाएं रहती थीं। इस समय वे सब अपने-अपने खंड में अपने किसी-न-किसी प्रेमी की बाहों में सो रही थीं ।
रात्रि का तीसरा प्रहर पूरा हो रहा था । भवन के दास-दासी सो गए थे । "भवन के रक्षक भी नींद में खर्राटे भर रहे थे ।
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मगधा और कनकावती का संबंध पुराना था । मगधा यदा-कदा कनकावती से मिलने राजप्रासाद में जाती थी । परन्तु मगधा का परिचय केवल सोमा को ही प्राप्त था । शेष यही समझते थे कि मगधा किसी धनाढ्य की पत्नी है और रानी कनकावती की प्रिय सखी है ।
रानी कनकावती अपने खंड में अकेली बैठी थी। अभी तक चादर से उसने मुंह ढांक रखा था । केवल आंखें खुली थीं। वह द्वार की ओर मगधा की प्रतीक्षा कर रही थी ।
मगधा अभी-अभी शैया पर सोयी थी । उसकी आंखों में नींद थी। मुख्य परिचारिका ने द्वार पर धक्का दिया । द्वार खुल गया । वह मगधा के पलंग के पास गई और धीरे से बोली- 'देवी ! '
मगधा स्वप्न में नहीं खो गई थी, किन्तु अभी-अभी श्रम से श्लथ होकर नींद की गोद में चली गई थी ।
११८ महाबल मलयासुन्दरी
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