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________________ पन्द्रह स्वर्ण-मुद्राएं देते हुए कहा---'वस्त्र और मिष्टान्न आते ही तू भट्टारिका देवी के मंदिर में जाना और वहां सुन्दरसेन नाम वाले पुरुष को सौंप आना।' उसके बाद महाबल और राजपुरुष वहां से आगे बढ़े। थोड़ी दूर जाते ही नगरी का भव्य श्मशानघाट आया। वहां हजारों व्यक्ति. एकत्रित हो रहे थे। यह देखकर महाबल ने पूछा-'श्रीमन् ! ये सारे लोग यहां क्यों एकत्रित हो रहे हैं ?' 'देखो' 'जो ऊपर के मंच पर खड़े हैं, वे हमारे महाराजा हैं और जो उनके पास बैठी हैं वह महादेवी चंपकमाला हैं।' राजपुरुष ने कहा। दोनों तेजी से आगे बढ़े। निकट आते ही महाबल ने देखा कि एक चिता तैयार है। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ है। हजारों लोग रुदन कर रहे हैं। मंच पर राजा खड़ा है और अर्द्ध मूच्छित अवस्था में रानी बैठी है। __ चिता को प्रज्वलित कर दिया गया है। राजा के सभी मंत्री उदास होकर एक ओर खड़े हैं। इस दृश्य को देखते ही महाबल दोनों हाथ ऊपर उछालते हुए जोर से चिल्ला उठा-'राजन् ! ठहरें । आपकी प्रिय पुत्री मलयासुन्दरी अभी जीवित है।' लोगों की दृष्टि महाबल पर स्थिर हो गई। महाबल लोगों को चीरता हुआ मंच के पास पहुंच गया। वह बोला--- 'राजन् ! मैं एक निमित्तज्ञ हूं। जिसके लिए आप प्रायश्चित्त करने के लिए मौत के मुंह में जा रहे हैं, वह मलयासुन्दरी जीवित है। एक अन्याय हो चुका है, अब दूसरा अन्याय न करें।' महामंत्री सुबुद्धि तत्काल इस निमित्तज्ञ के पास आए। अर्द्ध-मूच्छित रानी चंपकमाला कुछ सचेत हुई। राजा ने निराशा भरी दृष्टि से निमित्तज्ञ की ओर देखा। लोग हर्ष से जयजयकार करने लगे। वे चिल्ला रहे थे----हे निमित्तज्ञ महात्मन् ! तू जल्दी बता, हमारी प्रिय राजकुमारी मलयासुन्दरी कहां है ? हम तुझे स्वर्ण और रत्नों से ढंक देंगे 'तेरा यह उपकार चंद्रावती की जनता कभी नहीं भूलेगी।' महाप्रतिहार ने हाथ ऊंचे कर लोगों को शांत रहने का संकेत दिया। महामंत्री सुबुद्धि ने पूछा-'आप कौन हैं?' 'मैं बंगदेश का निवासी आचार्य बलदेव हूं। अपने निमित्त ज्ञान से मैंने जान लिया था कि इस नगरी का राजा मरने की तैयारी कर रहा है, इसलिए यहां आ पहुंचा। 'क्या राजकुमारी जीवित है ?' 'हां, आपको सारी बात बताऊं, उससे पूर्व यह चिता ठंडी हो जानी चाहिए।' महाबल मलयासुन्दरी ११५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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