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'भाई ! मैं एक परदेशी हूं..'मैं निमित्तशास्त्र का ज्ञाता हूं. 'मेरा ज्ञान सत्य है किन्तु मार्ग में भटक जाने के कारण अपने एक साथी के साथ इधर चला आया हूं।''आप मेरा एक कार्य करेंगे?'
'जरूर, क्या आप निमित्तज्ञ हैं ?'
'हां, इसका विश्वास अभी मैं आप सबको कराऊंगा।' कहकर महाबल ने पास में पड़े घास का एक पूला लिया और उसमें किसी को ज्ञात न होने पाए इस रीति से मलयासुन्दरी की राजमुद्रिका रख दी और उस घास के पूले को हाथी को खिला दिया। फिर लोगों की ओर देखते हुए महाबल ने गणित करने का ढोंग रचते हुए कहा---'श्रीमन् ! आपके महाराजा के हाथों भयंकर अन्याय हुआ है। "उनकी कन्या ही उस अन्याय की शिकार हुई है।'
'महात्मन् ! आप तो त्रिकालज्ञ हैं.'ठीक यही हुआ है ।' लोगों ने कहा। 'तो आप मेरा एक काम करें. 'मैं महाराजा को बचा लूंगा।' 'क्या? बचा लेंगे?' 'हां, अवश्य बचा लूंगा । किन्तु उससे पूर्व एक काम आपको करना होगा। 'कहिए, क्या काम है ?' 'यहां से कुछ दूरी पर भट्टारिका देवी का मंदिर है।' 'हां...'
'वहां मेरा एक साथी बैठा है । उसको कुछ स्वर्ण-मुद्राएं, वस्त्र और मिष्टान्न पहुंचाना है।'
'स्वर्ण मुद्राएं ?'
'हां, किन्तु आप निश्चिन्त रहें. "मैं यह अपनी रत्नमाला आपको सौंपता हूं... मेरा यह कार्य आप करें..." कहते हुए महाबल ने अपने गले से रत्नमाला निकालकर उन राजपुरुषों को दे दी।
रत्नमाला मूल्यवान् थी। राजपुरुष ने कहा-'महात्मन् ! आप अपनी माला अपने पास ही रखें 'आपके आदेशानुसार मैं सब कुछ संपन्न कर दूंगा। मेरे पास अभी पन्द्रह-बीस स्वर्ण-मुद्राएं हैं।'
'इतनी मुद्राएं पर्याप्त हैं।'
तत्काल राजपुरुष ने वस्त्र तथा मिष्टान्न लाने के लिए एक आदमी को भेजा और फिर महाबल से पूछा-'श्रीमन् ! आपके साथी का नाम क्या है ?'
'सुन्दरसेन ।' 'आपका नाम क्या है ? 'आचार्य बलदेव।'
'महात्मन् ! अब आप विलम्ब न करें। मेरे साथ चलें और महाराजा को बचा लें। आपका कार्य अभी पूरा हो जाएगा।' कहकर राजपुरुष ने अपने दास को
११४ महाबल मलयासुन्दरी
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