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'चलो, हम वहीं जाकर बैठे और सोचें ।' कहकर महाबल मंदिर की ओर बढ़ा।
मंदिर छोटा और निर्जन था। मंदिर में भट्टारिका देवी की सुन्दर मूर्ति स्थापित थी।
मंदिर की सोपानवीथी पर चढ़ते-चढ़ते महाबल की दृष्टि दीवार के पास पड़े हुए दो काष्ठ-फलकों पर पड़ी। दोनों फलक समान थे. वे नौका के आकार के बने थे । उन दोनों फलकों के मध्य एक आदमी आराम से सो सकता था। आदमी को अंदर सुलाकर दोनों फलकों को बंद कर देने से किसी को कुछ पता नहीं चल सकता था । देखने वाले को वह वृक्ष का स्कंध मात्र प्रतीत होता था।
इन दोनों फलकों के साथ एक इतिवृत्त जुड़ा हुआ था। किन्तु महाबल और मलया---दोनों इस इतिवृत्त से अनजान थे।
वर्षों पूर्व रानी चंपकमाला ने संतान-प्राप्ति के लिए मलयादेवी की आराधना की थी। वह उस समय इन दोनों फलकों के बीच रही थी। किन्तु यह इतिवृत्त विस्मृत हो चुका था । वे ही फलक दीवार के सहारे खड़े किए हुए पड़ें थे।
महाबल फलकों को एक दृष्टि से देख रहा था। मलया ने पूछा---'क्या सोच रहे हैं ?'
'राजकुमारी ! मेरे मन में एक संशय उत्पन्न हुआ है।' 'किस बात का संशय ?'
'तू निर्दोष और निरपराध है, यह सोचकर तेरे पिताश्री अवश्य ही अन्याय का प्रायश्चित्त करेंगे। और यह प्रायश्चित्त होगा मृत्यु का आलिंगन । यदि तेरे पिताश्री ने ऐसा किया तो माता भी जीवित नहीं रह पाएंगी। यदि समय रहते हम सचेत न हों तो बड़ी विपत्ति आ सकती है। इसलिए मैंने कहा था कि हम पर गुरुतर उत्तरदायित्व है। किसी भी प्रकार से हमें तीनों कार्य संपन्न करने हैं। और यह भी सच है कि तेरे सहयोग के बिना वे कार्य पूरे नहीं हो सकते।'
'कुमार ! मेरा सहयोग आपको है ही 'तीन कार्य कौन-से हैं ?' मलया ने पूछा।
दोनों मंदिर की चौकी पर बैठ गए थे। सूर्योदय हुए कुछ समय बीत चुका था। परन्तु वह था निर्जन स्थल । महाबल ने कहा-'प्रिये ! पहला कार्य यह है कि तुम्हारे पिताश्री की परिस्थिति को ज्ञात करना और यदि वे प्रायश्चित्तस्वरूप मृत्यु का वरण करने के लिए उद्यत हैं तो उन्हें बचा लेना चाहिए । दूसरा कार्य है कि स्वयंवर के दिन सभी अन्यान्य राजकुमारों के समक्ष मेरा तेरे साथ पाणिग्रहण करना और तीसरा कार्य है कि लक्ष्मीपुंज हार प्राप्त कर अपनी मातुश्री
महाबल मलयासुन्दरी १११
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