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________________ उसने जान लिया था कि जिस व्यन्तरी ने मुझे यहां ला पटका है, उसी ने वह हार चुराकर रानी कनकावती के पास पहुंचाया है। सोमा बोली-'वह हार रानी कनकावती के पास है और वह मुझे छोड़कर नगर की प्रसिद्ध वेश्या मगधा के यहां गयी है वह उसकी प्रिय सखी है 'मैं प्राण-भय से भागकर इस ओर आ गयी हूं।' __ अब तक मौनभाव से सुनने वाली मलया ने पूछा-'वह लक्ष्मीपुंज हार किसने लाकर रानी कनकावती को दिया था? क्या रानी ने और तूने उसके रहस्य को जाना है?' __ 'नहीं, कुमारश्री! वह हार अदृश्य रूप से आकर रानी की छाती पर गिरा था"उस समय मैं भी वहीं थी।''रानी ने उस हार के माध्यम से ही परमपवित्र मलया पर लांछन लगाकर मृत्यु का वरण करने के लिए बाध्य किया था।' महाबल बोला-'देखो, बहन ! रानी ने अन्याय किया और आज वह एक वेश्या के संरक्षण में जी रही है। कल क्या होगा कौन जाने ?' सोमा बोली--'कल और कुछ नहीं होगा. 'रानी किसी भी प्रकार से बचकर निकल जाएगी पर मुझे दूसरी आशंका हो रही है..." "कैसी आशंका ?' मलया ने प्रश्न किया। 'मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि महाराजा वीरधवल अपने द्वारा हुए अन्याय का प्रायश्चित्त करने के लिए सूर्योदय होते-होते चिता में प्रवेश कर स्वयं को जीवित जला डालेंगे।' मलया और महाबल कुछ नहीं बोले। प्रकाश धीरे-धीरे फैल रहा था। प्रातःकाल होने ही वाला था। सोमा ने कहा-'क्षत्रियकुमारो! अब मैं यहां से जा रही हूं। संभव है राजा के सैनिक मुझे ढूंढ़ते हुए यहां आ पहुंचें"मुझे कहीं दूर, बहुत दूर जाकर अपना आश्रय ढूंढ़ लेना चाहिए।' यह कहकर सोमा चली गयी। महाबल ने मलया का हाथ पकड़ते हुए कहा--'प्रिये ! अब हमें तीन कार्य करने हैं और वे कार्य तुम्हारे सहयोग के बिना नहीं हो सकेंगे।' 'परन्तु एक काम और करना होगा...' 'मैं समझ गया हूं, प्रिये--तुम्हारे पिताश्री के प्राणों को बचाना मेरे तीन कार्यों में से एक है।' कहता हुआ महाबल मलया का हाथ पकड़कर नदी की ओर चल पड़ा। महाबल मलयासुन्दरी १०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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