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'नगररक्षक को बुलाओ और उस दुष्टा की चारों ओर खोज करो । जीवित या मृत अवस्था में कनकावती को मेरे समक्ष प्रस्तुत करना होगा ।' महाराजा वीरधवल ने कुपित स्वरों में कहा ।
महामंत्री ने कहा- 'महाराज ! अब आप विश्राम कर लें रानी कनकावती भागकर कहां जा पाएगी उसको प्राप्त करने का उपाय हो जाएगा आप निश्चित रहें, विश्राम करें ।'
महाराजा बोले -- ' मंत्रीश्वर, मेरा आराम मलया के साथ कूच कर गया है । अविचार के कारण जो अनर्थ हुआ है वह मुझें कांटे की भांति चुभ रहा है ।'
रानी चंपकमाला एक शब्द भी बोलने की स्थिति में नहीं थी । उसकी आंखों से टप-टप कर आंसू गिर रहे थे और वह उन्हें पोंछने का प्रयत्न कर रही थी ।
महाराजा ने मंत्रीश्वर की ओर दृष्टि कर कहा - 'मंत्रीश्वर ! उस दुष्टा को पकड़कर मेरे सामने प्रस्तुत करना है और स्वयंवर के लिए आए हुए राजकुमारों को हमने अभी तक कुछ भी नहीं बतलाया है ।'
'कृपावतार ! एक जल्दबाजी के निर्णय का अनिष्ट परिणाम हम भोग ही रहे हैं. अब प्रत्येक प्रश्न पर हमें गंभीरता से विचार करना होगा । आप निश्चिन्त रहें. "मैं सारी व्यवस्था कर दूंगा ।' महामंत्री ने कहा ।
तत्काल महाराजा ने एक प्रश्न किया- 'मंत्रीश्वर ! क्या मलया की मृत्यु के विषय में आपको कुछ सन्देह है ? "
'नहीं, महाराज ! जब नगररक्षक मलया को लेकर वन की ओर प्रस्थान कर रहा था, तब मैंने उससे कहा था कि मलया को जीवित रहने का एक अवसर दे | किन्तु नगररक्षक से ज्ञात हुआ है कि राजकुमारी स्वयं मृत्यु का वरण कर शांति पाना चाहती थी वह तनिक भी विचलित हुए बिना उस अंधकारमय पातालकूप में गिर पड़ीनगररक्षक राजकुमारी के निश्चय को बदल नहीं सका । मुझे प्रतीत होता है कि राजकुमारी का मन माता-पिता के इस क्रूर व्यवहार से आहत प्रत्याहत हुआ और उसने प्राणों का विसर्जन कर देना ही श्रेयस्कर समझा ।'
'वह पातालकूप तो अत्यन्त भयंकर है !'
'हां, महाराज ! उस कूप में गिरने के पश्चात् मृत्यु के अतिरिक्त और कुछ भी संभव नहीं है ।' यह कहते हुए मंत्रीश्वर कक्ष से बाहर आ गए ।
रानी चंपकमाला महाराजा को सांत्वना दे रही थी और उन्हें चिन्तामुक्त होकर विश्राम करने के लिए कह रही थी ।
उसने औषधि की दूसरी पुड़िया दी ।
लगभग आधी घड़ी के पश्चात् पुड़िया का असर होने लगा और राजा निद्राधीन हो गए । रानी राजा के पास ही बैठी रही ।
महाबल मलयासुन्दरी १०७
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