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पर मैंने अन्याय कर डाला "ओह ! अब क्या होगा ?"
महामंत्री ने कहा - 'महाराजाधिराज ! अभी कुछ नहीं करना है, जब करना होगा तब करना होगा ।'
राजवैद्य बोला- 'महाराज ! आप कुछ विश्राम करें, मौन रहें ।'
'राजवैद्य ! पापी को विश्राम करने का अधिकार ही क्या है ? उतावली में मैंने अक्षम्य अपराध किया है। मंत्रीश्वर ! मुझे स्मरण हो रहा है कि आपने मुझे समझाने का भरसक प्रयत्न किया था, पर मैं । अरे, वह दुष्टा कनकावती कहां है ?' यह कहते-कहते महाराजा बैठ गए ।
महामंत्रीश्वर ने कहा- 'महाराज ! आप कुछ आराम करें ।'
'नहीं, मंत्रीश्वर ! सबसे पहले मेरे सामने कनकावती को हाजिर करो ।' तत्काल महामंत्री ने महाप्रतिहार की ओर इशारा किया। महाप्रतिहार कावती के कक्ष की ओर चला । वह कक्ष के द्वार पर पहुंचा। उसने द्वार खटखटाया । द्वार नहीं खुला । तब महाप्रतिहार ने कहा - 'देवी ! शीघ्र द्वार खोलो और मेरे साथ महाराजा के पास चलो, अन्यथा मुझे द्वार तोड़ने के लिए विवश होना पड़ेगा ।'
परन्तु उत्तर कौन दे ? कौन द्वार खोले ? रानी तो पलायन कर अपनी प्रिय सखी मगधा वेश्या के यहां सुखपूर्वक पहुंच चुकी थी ।
महाप्रतिहार ने द्वार खुलने की प्रतीक्षा में कुछ क्षण बिताए । द्वार नहीं खुला । तब उसने अपने सैनिकों को द्वार तोड़ने का आदेश दे दिया । द्वार तोड़ दिया गया । महाप्रतिहार कक्ष के भीतर गया । चारों ओर देखा, वह अवाक् रह गया । उस शयनकक्ष में न रानी ही थी और न कोई दासी । दो-चार पेटियां अस्त-व्यस्त पड़ी थी दीपमालिका का मंद प्रकाश योगी की भांति स्थिर था ।
महाप्रतिहार ने कक्ष का कोना-कोना छान डाला । वह वातायन की ओर गया । नीचे देखा, पर कुछ भी पता नहीं चला। वह दौड़ा-दौड़ा महाराजा बीरधवल के कक्ष पर पहुंचा। उस समय महाराजा चंपकमाला का हाथ पकड़े फूट-फूटकर रो रहे थे । राजवैद्य औषधि की एक मात्रा देकर विदा हो गए थे । महामंत्री महाराजा को धीरज बंधा रहे थे ।
चंपकमाला को वृत्तान्त ज्ञात नहीं था ।
इतने में ही महाप्रतिहार ने कक्ष में प्रवेश कर कहा - 'कृपानाथ ! देवी कनकावती या कोई भी दासी वहां नहीं है । कक्ष खाली पड़ा है ।'
'वह कहां गई है ?'
'शयनकक्ष का द्वार भीतर से बंद था। मुझे उसे तुड़वाना पड़ा । पर अंदर कोई नहीं मिला संभव है कि देवी कनकावती अपनी दासी को साथ ले वातायन के मार्ग से बाहर चली गई हैं ।' महाप्रतिहार ने कहा ।
१०६ महाबल मलयासुन्दरी
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