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________________ हैंइस हार ने ही महाराजा के हृदय में ज्वाला भभकायी है और इसी हार ने मलया के प्राण लिये हैं।' महामंत्री ने महाराजा का हाथ दबोचा। सोमा बोली-'महादेवी ! मेरी एक प्रार्थना...' 'बोल, आज मैं तेरे पर प्रसन्न हूं, अत्यन्त प्रसन्न हूं.. आज की खुशी में मैं तुझे अपार रत्नहार दूंगी।' ___ 'महादेवी ! मेरी प्रार्थना दूसरी है। इस हार का नाम लक्ष्मीपुंज है, पर मुझे तो यह अपशकुन अथवा अनिष्ट करने वाला प्रतीत होता है ''आप इस हार को कभी धारण न करें।' __ 'अनिष्ट करने वाला ! 'पगली ! यह तो देवलोक की प्रसादी है.. मेरी सौत इसी हार को पहनकर महाराजा पर अनुशासन करती थी 'अब मैं महाराजा पर अधिकार करूंगी।' . 'महादेवी ! इस हार ने अनेक अनिष्ट किए हैं। इसीलिए अभी कुछ समय तक आप इस हार को बाहर न निकालें अन्यथा...' 'आशंका मत कर । मैं पूर्ण जागरूक होकर ही इस हार को बाहर निकालूंगी "तब तक यह मेरे पास ही सुरक्षित रहेगा।' सोमा कुछ कहे, उससे पूर्व ही बाहर खड़े-खड़े सारी बातें सुनने वाले महाराजा अत्यन्त कोपारुण हो गए और उन्होंने द्वार पर धक्का मारा' 'परन्तु द्वार भीतर से बन्द था इसलिए खुल नहीं सका । महाराजा बार-बार द्वार को खटखटाते हुए गुर्राकर बोले-'दुष्टा''मेरी लाड़ली पुत्री का खून करने वाली नीच नारी शीघ्र ही दरवाजा खोल !' महाराजा की आवाज सुनते ही कनकावती और सोमा--दोनों चौंक पड़ी। फिर महाराजा की आवाज सुनाई दी-'ईर्ष्या और वैर की जीवित अग्नि जैसी राक्षसी तेरे पाप का घड़ा तेरे ही हाथों फूट चुका है "जल्दी दरवाजा खोल !' यह कहते-कहते ही महाराजा वीरधवल वहीं बेहोश होकर गिर पड़े। रानी ने सोमा से कहा--'सोमा ! बचने का एकमात्र उपाय यही है कि हम वातायन के मार्ग से भाग जाएं जितना धन ले सकें, उतना साथ ले लें और यहां से शीघ्र निकल जाएं । अन्यथा मौत निश्चित है.'जल्दी कर''मेरी पेटी खोल'''राजा दरवाजा खोलकर अन्दर घुसें, उससे पूर्व ही हमें यहां से पलायन कर जाना है।' कांपती हुई सोमा ने पेटी खोली। रानी कनकावती ने रत्नाभरणों की पोटली बांधी 'लक्ष्मीपुंज हार भी ले लिया और दोनों रस्से के सहारे वातायन से नीचे उतर गयीं। राजा मूच्छित हो गए थे। नीचे किसी को कोई खबर नहीं थी 'महामंत्री महाबल मलयासुन्दरी १०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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