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________________ 'नहीं, उन्हें बुलाने में कोई लाभ नहीं है। हम दोनों वहां गुप्त रूप में जाएं' महामंत्री ने कहा। 'गुप्तरूप में क्यों ? 'महाराज ! जब इच्छानुरूप कार्य हो जाता है अथवा वैर पोषण की तप्ति होती है तब व्यक्ति हर्षावेश में आ जाता है।' बहुत बार वह हर्ष का आवेश सत्य का भान करा डालता है।' महामंत्री ने कहा । 'तो हम चलें'-कहकर राजा उठा। 'ऐसे नहीं, पूर्ण गुप्तरूप में। कोई पहचान न पाए, इस रूप में जाना है।' महामंत्री ने कहा। महाराजा ने अपने सेवक को बुलाया और उसे दो 'तमोवस्त्र' लाने के लिए कहा । ये तमोवस्त्र एक प्रकार के वृक्ष की छाल के तंतुओं से निष्पन्न होते थे। अंधकार में ये तमोवस्त्र अदृश्य हो जाते, प्रकाश में ये दृश्य रहते। इन तमोवस्त्रों को धारण करने वाले को रात में कोई नहीं देख सकता था। सेवक दो तमोवस्त्र ले आया। महाराजा वीरधवल और महामंत्री ने तमोवस्त्र पहन लिये। रानी कनकावती आज अत्यन्त प्रसन्न थी। उसकी प्रिय सखी सोमा भी उसकी प्रसन्नता को विविध प्रकार से बढ़ा रही थी। रानी कनकावती के कक्ष का द्वार भीतर से बंद था। रानी कनकावती प्रसन्नमुद्रा में एक आसन पर बैठी थी। उसके पास दासी सोमा बैठी थी। पास में त्रिपदी पर वह लक्ष्मीपुंज हार पड़ा था। कनकावती सोमा को यह सारा वृत्तान्त दो-तीन बार सुना चुकी थी कि उसने किस चतुराई से क्या-क्या किया था। फिर भी रानी मानती थी कि वह अपनी विजय-गाथा किसी को नहीं सुना पायी है। वह उसके हृदय में ही अवस्थित है। तमोवस्त्र को पहने हुए दोनों पुरुष रानी कनकावती के कक्ष के द्वार पर आए और कक्ष के भीतर सोमा और कनकावती के बीच जो वार्तालाप चल रहा था, उसे कान लगाकर सुनने लगे। बात-ही-बात में सोमा ने कहा-'देवी ! मुझे तो एक भय निरन्तर सता रहा था।' 'कौन-सा भय ?' 'आपकी बात यदि महाराजा नहीं मानेंगे तो..?' बीच में ही कनकावती जोर से हंसती हुई बोल पड़ी--'महाराजा! पगली, उनमें तो बुद्धि ही कहां है ? किन्तु आज मुझे अपूर्व आनन्द का अनुभव हो रहा है कि अब से यह लक्ष्मीपुंज हार मेरे कंठ की शोभा बढ़ाएगा। यह मेरे सत्त्व को और अधिक शक्तिशाली बनाएगा''इस हार ने ही मेरे सारे मनोरथ पूर्ण किए १०२ महाबल मलयासुन्दरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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