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नारी उस प्रचंड मुक्के के त्रास को सहन नहीं कर सकी । वह करुण स्वर में बोली- 'महाबल !
कर'
'तू यह मानती है कि मैं तुझे मुक्त कर अपनी मौत को निमन्त्रण दूं ? ऐसा कभी नहीं हो सकता ।'
मुझे छोड़ दे मेरे पर करुणा
'युवराज ! तुझे नीचे फेंकने का मेरा प्रयास निष्फल हुआ है. मैं तुझे ऐसे स्थल पर उतारूंगी कि तुझे तनिक भी आंच नहीं आएगी - यह कहती हुई वह नारी सर सर करती हुई नीचे आने लगी थोड़े क्षणों बाद बोली- 'अब तू मुझे छोड़ दे और इस आम्रवृक्ष पर आराम से उतर जा ।'
महाबल ने कहा -- एक बात बता, क्या तूने ही मेरी माता के गले से लक्ष्मीपुंज हार निकाला था ? वह हार अब कहां है ?"
उसने कहा--' छोड़ दे मुझे, मैं नहीं जानती ।'
महाबल बोला --- ' देवी ! मैं तुझे नहीं छोडूंगा । मैं मरूंगा भी तो तुझे साथ लेकर ही मरूंगा । तू मुझे बता, मैं छोड़ दूंगा ।'
वह व्यन्तरी बोली- 'कुमार ! तु मुझे परेशान कर रहा है। मैं इतना बताए देती हूं कि वह हार तुझे कभी-न-कभी प्राप्त हो जाएगा ।'
'वह हार अब कहां है ?"
'कुमार आगे मत पूछो ।'
'क्यों? मैं तुझे नहीं छोडूंगा ।' महाबल ने हाथ की पकड़ और मजबूत कर दी ।
वह व्यंतरी तिलमिला उठी ।
उसने कहा - 'कुमार ! मैंने ही उस हार का अपहरण किया था । तेरा भी अपहरण करना चाहती थी, पर व्यर्थ । तेरे पुण्य प्रबल हैं । वह हार मलयासुन्दरी की अपरमाता रानी कनकावती के पास है ।'
महाबल बोला- अब तू मुझे जहां चाहे उतार दे ।'
देवी ने उसे विशाल आम्रवक्ष पर उतार दिया ।
महाबल उस आम्रवृक्ष की विशाल शाखा पर खड़ा रहा। उसने हाथ छोड़ दिया । वह नारी तत्काल वायु-वेग से आकाश में उड़ी और अदृश्य हो गई ।
महाबल ने सोचा - अरे ! मैंने इसका परिचय नहीं पूछा- इससे मैंने लक्ष्मीपुंज हार के विषय में ही पूछा । ओह, यह कैसे हुआ ? मैंने हाथ क्यों छोड़ा ? मेरे में मतिभ्रम क्यों हुआ ?
महाबल इसी चिन्तन में निमग्न होकर धीरे-धीरे वृक्ष से नीचे उतरा और वृक्ष के तने के पास खड़ा रहा उसने आकाश की ओर देखा. अभी रात्रि का तीसरा प्रहर चल रहा था । महाबल ने सोचा- मैं कहां आ गया ? यह कौन-सा
६२ महाबल मलयासुन्दरी
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