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व्यवहार सूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन | ८३ निर्यूहक भद्रबाहु स्वामी हैं | आगमप्रभावक मुनि पुण्यविजयजी' का भी यही अभिमत है । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि चारों छेद-सूत्रों के निर्यूहक भद्रबाहु स्वामी हैं । किन्तु 'जीतकल्प' भद्रबाहु स्वामी की कृति नहीं है । उसके रचयिता जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण हैं । और महानिशीथ जो वर्तमान में उपलब्ध है वह आचार्य हरिभद्र के द्वारा पुनरुद्धार किया हुआ है । महानिशीथ के सम्बन्ध में मैंने अपने ग्रन्थ 'जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा' में विस्तार से उसकी प्रामाणिकता और अप्रामाणिकता के सम्बन्ध में चिन्तन किया है । मैं पाठकों को उसे पढ़ने का सूचन करता हूँ । यह सत्य है कि महानिशीथ का मूल संस्करण दीमकों के द्वारा नष्ट हो जाने के पश्चात् वर्तमान में जो महानिशीथ उपलब्ध है वह महानिशीथ का नवीन संस्करण है । इस तरह चार मौलिक छेद-सूत्र हैं, दशाश्रुतस्कंध, व्यवहार, बृहत्कल्प और निशीथ ।
निर्यूहण कृतियों के सम्बन्ध में यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि उसके अर्थ के प्ररूपक तीर्थंकर हैं और सूत्ररूप के रचयिता गणधर है और जिन आगमों पर जिनके नाम उट्टंकित हैं वे उसके सूत्र रचयिता हैं, जैसे दशवैकालिक के शय्यंभव और छेदसूत्रों के रचयिता भद्रबाहु स्वामी हैं । पर अर्थ के प्ररूपक तो तीर्थंकर ही हैं ।
व्यवहार सूत्र और उसके व्याख्या साहित्य का परिचय छेद-सूत्रों में व्यवहार का विशिष्ट स्थान है, अन्य छेद- सूत्रों की भाँति प्रस्तुत आगम में भी श्रमणों की आचार संहिता पर चिन्तन किया गया है । बृहत्कल्प और व्यवहार ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं । व्यवहार में दस उद्देशक हैं, ३७३ अनुष्टुप् श्लोक प्रमाण मूल पाठ उपलब्ध होता है । २६७ सूत्र संख्या है । व्यवहार सूत्र पर उसकी व्याख्या करने हेतु भद्रबाहु रचित नियुक्ति प्राप्त होती है और साथ ही व्यव - हार पर भाष्य भी प्राप्त होता है । उस भाष्य के रचयिता कौन हैं - इस सम्बन्ध में इतिहास तत्त्वविद् मनीषी निर्णय नहीं कर सके हैं । व्यवहार पर एक चूर्णि भी उपलब्ध होती है और साथ ही संस्कृत भाषा में व्यवहार पर एक वृत्ति भी मिलती है । इन सभी का संक्षेप में परिचय हम प्रस्तुत करेंगे, जिससे ज्ञात हो सकेगा कि व्यवहार सूत्र का कितना गहरा महत्व रहा है। जिस पर सभी व्याख्याकारों ने अपनी कलम चलाई है ।
अन्तर् दर्शन
व्यवहार सूत्र के दस उद्देशक हैं, उसमें प्रथम उद्देशक में भिक्षु और भिक्षुणी के लिए त्यागने योग्य मूलगुण या उत्तरगुण के दोष का सेवन किया हो, जिसका
1 बृहत्कल्प सूत्र, भाग ६, प्रस्तावना पृ० २ ।
2
दशाश्रुतस्कंधनिर्युक्ति, गाथा १ ।
3
जीतकल्पचूर्ण, गाथा ५-१० ।
1
" जैन साहित्य का बृहत् इतिहास, भाग २, पृ० २६२ ।
5 जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा, पृ० ४०७ से ४१० ।
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