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________________ ७२ चिन्तन के विविध मायाम : खण्ड १ ईर्ष्या, कदाग्रह, अविद्या, निर्लज्जता, प्रद्वेष, प्रमाद, रसलोलुपता, प्रकृति की क्षुद्रता और बिना विचारे कार्य करने की प्रवृत्ति होती है । आधुनिक भाषा में हम उसे सेल्फिश कह सकते हैं । यदि उसे किसी कार्य में लाभ होता हो तो वह अन्य व्यक्ति को हानि पहुँचाने में संकोच नहीं करता। किन्तु कृष्ण-लेश्या की अपेक्षा उसके विचार कुछ प्रशस्त होते हैं। तीसरी लेश्या का नाम कापोत है जो अलसी पुष्प की तरह मटमैला अथवा कबूतर के कण्ठ के रंगवाला होता है । कापोतलेश्या में नीला रंग फीका हो जाता है। कापोतलेश्या वाले व्यक्ति की वाणी व आचरण में वक्रता होती है। वह अपने दुगुणों को छिपाकर सद्गुणों को प्रकट करता है । नीललेश्या से उसके भाव कुछ अधिक विशुद्ध होते हैं । एतदर्थ ही अधर्मलेश्या होने पर भी वह धर्मलेश्या के सन्निकट है। चतुर्थ लेश्या का रंग शास्त्रकारों ने लाल प्रतिपादित किया है। लाल रंग साम्यवादियों की दृष्टि से क्रांति का प्रतीक है । तीन अधर्मलेश्याओं से निकलकर जब वह धर्मलेश्या में प्रविष्ट होता है तब यह एक प्रकार से क्रांति ही है अतः इसे धर्मलेश्या में प्रथम स्थान दिया गया है। वैदिक परम्परा में संन्यासियों को गैरिक अर्थात् लाल रंग के वस्त्र धारण करने का विधान है। हमारी दृष्टि से उन्होंने जो यह रंग चुना है वह जीवन में क्रांति करने की दृष्टि से ही चुना होगा। जब साधक के अन्तर्मानस में क्रांति की भावना उबुद्ध होती है तो उसके शरीर का प्रभामण्डल लाल होता है और वस्त्र भी लाल होने से वे आभामण्डल के साथ घुलमिल जाते हैं । जब जीवन में लाल रंग प्रकट होता है तब उसके स्वार्थ का रंग नष्ट हो जाता है। तेजोलेश्या वाले व्यक्ति का स्वभाव नम्र व अचपल होता है। वह जितेन्द्रिय, तपस्वी, पापभीरु और मुक्ति की अन्वेषणा करने वाला होता है । संन्यासी का अर्थ भी यही है। उसमें महत्त्वाकांक्षा नहीं होती। उसके जीवन का रंग उषाकाल के सूर्य की तरह होता है । उसके चहरे पर साधना की लाली और सूर्य के उदय की तरह उसमें ताजगी होती है। पंचम लेश्या का नाम पद्म है । लाल के बाद पद्म अर्थात् पीले रंग का वर्णन है। प्रातःकाल का सूर्य ज्यों-ज्यों ऊपर उठता है उसमें लालिमा कम होती जाती है और सोने की तरह पीत रंग प्रस्फुटित होता है। लाल रंग में उत्तेजना हो सकती है पर पीले रंग में कोई उत्तेजना नहीं है । पद्मलेश्या वाले साधक के जीवन में क्रोध-मानमाया-मोह की अल्पता होती है। चित्त प्रशांत होता है । जितेन्द्रिय और अल्पभाषी 1 १ ३ उत्तराध्ययन ३४।२२-२४ । वही ३४।२५-२६ । वही ३४।२७-२८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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