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लेश्या : एक विश्लेषण | ६५
है । वस्त्र कम करना और वस्त्रों का पूर्ण त्याग कर देना अभिजातियों की श्रेष्ठता व ज्येष्ठता का कारण हैं ।
अपने प्रधान शिठ्य आनन्द से तथागत बुद्ध ने कहा- मैं भी छः अभिजातियों का प्रतिपादन करता हूँ ।
(१) कोई व्यक्ति कृष्णाभिजातिक ( नीच कुल में पैदा हुआ) हों और कृष्ण धर्म (पापकृत्य) करता है
(२) कोई व्यक्ति कृष्णाभिजातिक हो और शुक्लधर्म करता है ।
(३) कोई व्यक्ति कृष्णाभिजातिक हो और अकृष्ण -अशुक्ल निर्वाण को समुत्पन्न करता है ।
(४) कोई व्यक्ति शुक्लाभिजातिक ( उच्च कुल में समुत्पन्न हुआ ) हो तथा शुक्लधर्म (पुण्य) करता है ।
(५) कोई व्यक्ति शुक्लाभिजातिक हो और कृष्ण धर्म करता है ।
(६) कोई व्यक्ति शुक्लाभिजातिक हो और अशुक्ल — अकृष्ण निर्वाण को समुत्पन्न करता है । 1
प्रस्तुत वर्गीकरण जन्म और कर्म के आधार पर किया गया है। इस वर्गीकरण में चाण्डाल, निषाद आदि जातियों को शुक्ल कहा है । कायिक, वाचिक और मानसिक जो दुश्चरण हैं वे कृष्णधर्म हैं और उनका जो श्रेष्ठ आचरण है वह शुक्लधर्म है । पर निर्वाण न कृष्ण है, न शुक्ल है। इस वर्गीकरण का उद्देश्य है नीच जाति में समुत्पन्न व्यक्ति भी शुक्लधर्म कर सकता है और उच्चकुल में उत्पन्न व्यक्ति भी कृष्णधर्म करता है । धर्म और निर्वाण का सम्बन्ध जाति से नहीं है ।
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प्रस्तुत विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि पूरणकश्यप और तथागत बुद्ध ने छः अभिजातियों का जो वर्गीकरण किया है उसका सम्बन्ध लेश्या के साथ नहीं है । श्याओं का जो सम्बन्ध है वह एक-एक व्यक्ति से है । विचारों को प्रभावित करने वाली लेश्याएँ एक व्यक्ति के जीवन में समय के अनुसार छः भी हो सकती है ।
छ: अभिजातियों की अपेक्षा लेश्या का जो वर्गीकरण है वह वर्गीकरण महाभारत से अधिक मिलता-जुलता है। एक बार सनत्कुमार ने दानवों के अधिपति वृत्रासुर से कहा - प्राणियों के छः प्रकार के वर्ण हैं - (१) कृष्ण, (२) धूम्र, (३) नील, (४) रक्त, (५) हारिद्र और (६) शुक्ल । कृष्ण, धूम्र और नील वर्ण का सुख
1 (क) अंगुत्तरनिकाय ६।६।३, भाग २, पृ० ६३-६४ ।
(ख) दीघनिकाय, ३|१०, पृ० २२५ ।
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