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लेश्या : एक विश्लेषण | ६१ नहीं है । चौदहवें गुणस्थान में अघातीकर्म है, किन्तु वहाँ लेश्या का अभाव है। इसलिए योग द्रव्य के अन्तर्गत ही द्रव्य स्वरूप लेश्या मानना चाहिए।
__ लेश्या से कषायों की वृद्धि होती है; क्योंकि योगद्रव्यों में कषाय बढ़ाने का सामर्थ्य है । प्रज्ञापना की टीका में आचार्य ने लिखा है-कर्मों के द्रव्य, विपाक होने वाले और उदय में आने वाले दोनों प्रयत्नों से प्रभावित होते हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव अपना कर्तृत्व दिखाते हैं । जिसे पित्त-विकार हो उसका क्रोध बढ़ जाता है । ब्राह्मी का सेवन ज्ञानावरण को कम करने में सहायक है। मदिरापान से ज्ञानावरण का उदय होता है । दही के सेवन से निद्रा की अभिवृद्धि होती है। निद्रा जो दर्शनावरण का औदयिक फल है । अतः स्पष्ट है कषायोदय में अनुरंजित योग प्रवृत्ति ही (लेश्या) स्थितिपाक में सहायक होती है ।
गोम्मटसार में आचार्य नेमिचन्द्र ने योग-परिणामस्वरूप लेश्या का वर्णन किया है। आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में और गोम्मटसार के कर्मकाण्ड खण्ड में कषायोदय अनुरंजित योग प्रवृत्ति को लेश्या कहा है। प्रस्तुत परिभाषा के अनुसार दसवें गुणस्थान तक ही लेश्या हो सकती है। प्रस्तुत परिभाषा अपेक्षाकृत होने से पूर्व की परिभाषा से विरुद्ध नहीं है । अब हम संक्षेप में तीनों परिभाषाओं के के सम्बन्ध में चिन्तन करेंगे।
प्रथम कर्मवर्गणानिष्पन्न लेश्या को मानने वाली एक परम्परा थी, किन्तु उस पर विस्तार के साथ लिखा हुआ साहित्य उपलब्ध नहीं है।
द्वितीय कर्मनिस्यन्द लेश्या मानने वाले आचार्यों ने योग-परिणाम लेश्या को स्वीकार नहीं किया है। उनका मन्तव्य है कि लेश्या योग-परिणाम नहीं हो सकती। क्योंकि कर्मबन्ध के दो कारणों में से योग के द्वारा प्रकृति और प्रदेश का ही बन्ध हो सकता है, स्थिति और अनुभाग का बन्ध नहीं हो सकता। जबकि आगम साहित्य में स्थिति का लेश्याकाल प्रतिपादित किया गया है, वह इस परिभाषा की मानने से घट
1 प्रज्ञापना० १७ टीका, पृ० ३३० । 2 अयदोत्ति छ लेस्साओ सहतियलेस्सा दु देसविरद तिये । तत्तो सुक्कालेस्सा, अजोगिठाणं अलेस्सं तु ॥
-गोम्मटसार, जीवकाण्ड, ५३१ ३ भावलेश्या कषायोदयरंजितायोग प्रवृत्तिरिति कृत्या औदयिकीत्युच्यते ।
-सर्वार्थसिद्धि अ० २, सू० २ • जोग पउत्ती लेस्सा कसाय उदयाणु रंजिया होइ । तत्ते दोण्णं कज्जं बन्ध चउत्थं समुद्दिटठं ॥
--जीवकाण्ड, ४८६
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