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________________ ६० | चिन्तन के विविध आयाम : खण्ड १ दुत्पन्न अविशुद्ध हैं । इसी तरह जिन्होंने अप्रशस्त लेश्या-द्रव्यों को अधिक मात्रा में भोगा है वे विशुद्ध हैं और जिनके अधिक शेष हैं वे अविशुद्ध लेश्या वाले हैं। हम पूर्व लिख चुके हैं कि लेश्या के दो भेद हैं-द्रव्य और भाव । द्रव्यलेश्या पुद्गल विशेषात्मक है । इसके स्वरूप के सम्बन्ध में मुख्य रूप से तीन मान्यताएँ प्राप्त हैं-कर्मवर्गणानिष्पन्न, कर्मनिस्यन्द और योगपरिणाम । उत्तराध्ययन सूत्र के टीकाकार शांतिसूरि का अभिमत है कि द्रव्य-लेश्या का निर्माण कर्मवर्गणा से होता है। यह द्रव्य-लेश्या कर्मरूप है तथापि वह आठ कर्मों से पृथक् है, जैसे कि कार्मण शरीर । यदि लेश्या को कर्मवर्गणा निष्पन्न न माना जाय तो वह कर्म-स्थिति-विधायक नहीं बन सकती । कर्म-लेश्या का सम्बन्ध नामकर्म के साथ है । उसका सम्बन्ध शरीर-रचना सम्बन्धी पुद्गलों से है। उसकी एक प्रकृति शरीर नामकर्म है । शरीर नामकर्म के पुद्गलों का एक समूह कर्म-लेश्या है ।। दूसरी मान्यता की दृष्टि से लेश्या-द्रव्य कर्मनिस्यन्द रूप है । यहाँ पर निस्यन्द रूप का तात्पर्य बहते हुए कर्म-प्रवाह से है। चौदहवें गुणस्थान में कर्म की सत्ता है, प्रवाह है। किन्तु वहाँ पर लेश्या नहीं है । वहां पर नये कर्मों का आगमन नहीं होता। __ कषाय और योग ये कर्म बन्धन के दो मुख्य कारण हैं। कषाय होने पर लेश्या में चारों प्रकार के बन्ध होते हैं । प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध का सम्बन्ध योग से है और स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध का सम्बन्ध कषाय से है । जब कषायजन्य बन्ध होता है तब लेश्याएँ कर्मस्थिति वाली होती हैं। केवल योग में स्थिति और अनुभाग नहीं होता, जैसे तेरहवें गुणस्थानवर्ती अरिहन्तों के ईपिथिक क्रिया होती है, किन्तु स्थिति, काल और अनुभाग नहीं होता। जो दो समय का काल बताया गया है वह काल वस्तुतः ग्रहण करने का और उत्सर्ग का काल है । वह स्थिति और अनुभाग का काल नहीं है। तृतीय अभिमतानुसार लेश्या-द्रव्य योगवर्गणा के अन्तर्गत स्वतन्त्र द्रव्य है। बिना योग के लेश्या नहीं होती। लेश्या और योग में परस्पर अन्वय और व्यतिरेक सम्बन्ध है । लेश्या के योग निमित्त में दो विकल्प समुत्पन्न होते हैं । क्या लेश्या को योगान्तर्गत द्रव्यरूप मानना चाहिए ? अथवा योगनिमित्त कर्मद्रव्य रूप? यदि वह लेश्या द्रव्यकर्म रूप है तो घातीकर्म द्रव्यरूप है या अघाती कर्म द्रव्यरूप है ? लेश्या घातीकर्म द्रव्यरूप नहीं है। क्योंकि घातीकर्म नष्ट हो जाने पर भी लेश्या होती है । यदि लेश्या को अघातीकर्म द्रव्यस्वरूप माने तो अघाती कर्मोवालों में भी सर्वत्र लेश्या 1 प्रज्ञा० पद, १७ टीका० पृ० ३३३ । कर्म द्रव्यलेश्या इति सामान्याऽभिधानेऽपि शरीर नामकर्म द्रव्याण्येव कर्म द्रव्यलेश्या । कार्मण शरीरवत् पृथगेव कर्माष्टकात् कर्म वर्गणा निष्पन्नानि कर्म लेश्या द्रव्यानीति तत्त्वं पुनः । -उत्तरा० अ० ३४ टी० पृ०, ६५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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