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________________ लेश्या : एक विश्लेषण लेश्या जैन-दर्शन का एक पारिभाषिक शब्द है । जैन दर्शन के कर्म-सिद्धान्त को समझने में लेश्या का महत्त्वपूर्ण स्थान है । इस विराट विश्व में प्रत्येक संसारी आत्मा में प्रतिपल प्रतिक्षण होने वाली प्रवृत्ति से सूक्ष्म कर्म पुद्गलों का आकर्षण होता है। जब वे पुद्गल स्निग्धता व रूक्षता के कारण आत्मा के साथ एकमेक हो जाते हैं तब उन्हें जैन-दर्शन में 'कर्म' कहा जाता है। लेश्या एक प्रकार का पौद्गलिक पर्यावरण है । जीव से पुद्गल और पुद्गल से जीव प्रभावित होते हैं । जीव को प्रभावित करने वाले पुद्गलों के अनेक समूह हैं । उनमें से एक समूह का नाम लेश्या है । उत्तराध्ययन की बृहत् वृत्ति में लेश्या का अर्थ आणविक आभा, कान्ति, प्रभा और छाया किया है। मूलाराधना में शिवार्य ने लिखा है "लेश्या छाया पुद्गलों से प्रभावित होने वाले जीव परिणाम हैं। प्राचीन साहित्य में शरीर के वर्ण, आणविक आभा और उसने प्रभावित होने वाले विचार इन तीनों अर्थों में लेश्या पर विश्लेषण किया गया है । शरीर का वर्ण और आणकिक आभा को द्रव्यलेश्या कहा जाता है और विचार को भावलेश्या । द्रव्यलेश्या पुद्गल है। पुद्गल होने से वैज्ञानिक साधनों के द्वारा भी उन्हें जाना जा सकता है और प्राणी में योगप्रवृत्ति बृहद् वृत्ति, पत्र ६५० लेशयति-श्लेषयतीवात्मनि जननयनानीति लेश्या-अतीव चक्षुराक्षेपिका स्निग्धदीप्त रूपा छाया। मूलाराधना ७/१६०७ जह बाहिरलेस्साओ, किण्हादीओ हवंति पूरिसस्स । अब्भन्तरलेस्साओ, तह किण्हादीय पुरिसस्स ।। (क) गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा ४६४ वण्णोदयेण जणिदो सरीरवण्णो दु दव्वदो लेस्सा । सा सोढा किण्हादी अणेयभेया सभेयेण ।। (ख) उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ५३६ । 4 उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ५४० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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