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________________ ५२ | चिन्तन के विविध आयाम : खण्ड १ योग कहा है ।। उपाध्याय यशोविजय जी ने भी योग की वही परिभाषा की है। बौद्ध चिन्तकों ने योग का अर्थ समाधि किया है। योग के बाह्य और आभ्यन्तर ये दो रूप हैं। साधना में चित्त का एकाग्र होना या स्थिरचित्त होना यह योग का बाह्य रूप है। अहंभाव, ममत्वभाव आदि मनोविकारों का न होना-योग का आभ्यन्तर रूप है । कोई प्रयत्न से चित्त को एकाग्र भी कर ले पर अहंभाव और ममभाव प्रभृति मनोविकारों का परित्याग नहीं करता है तो उसे योग की सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती । यह केवल व्यावहारिक योग साधना है, किन्तु पारमार्थिक या भावयोग साधना नहीं है। अहंकार और ममकार से रहित समत्वभाव की साधना को ही गीताकार ने सच्चा योग कहा है ।। वैदिक परम्परा का प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद है। उसमें आधिभौतिक और आधिदैविक वर्णन ही मुख्य रूप से हुआ है । ऋग्वेद में योग शब्द का व्यवहार अनेक स्थलों पर हुआ है। किन्तु वहाँ पर योग का अर्थ ध्यान और समाधि नहीं है, पर योग का अर्थ जोड़ना, मिलाना और संयोग करना है। उपनिषदों में भी जो उपनिषद् बहुत ही प्राचीन हैं उनमें भी आध्यात्मिक अर्थ में योग शब्द व्यवहृत नहीं हुआ है, किन्तु उत्तरकालीन कठोपनिषद्, श्वेताश्वतर उपनिषद्' आदि में आध्यात्मिक अर्थ में योग शब्द का प्रयोग हुआ है। गीता में कर्मयोगी श्रीकृष्ण ने योग का खासा अच्छा निरूपण किया है। योगवासिष्ठ ने भी योग पर विस्तार से चर्चा की है। ब्रह्मसूत्र में भी योग पर खण्डन और मण्डन की दृष्टि से चिन्तन किया गया है ।10 किन्तु महर्षि पतंजलि 1 (क) मोक्खेव जोयणाओ जोगो । -योगविशिका, गा० १। (ख) आध्यात्म भावनाऽऽध्यानं समता वृत्तिसंक्षयः । मोक्षेण योजनाद्योग एवं श्रेष्ठो यथोत्तरम् ॥ -योगबिन्दु ३१ । ३ मोक्षेण योजनादेव योगो ह्यत्र निरुच्यते। -द्वात्रिशिका ३ संयुक्त निकाय ५-१० विभंग ३१७-१८ । • योगस्थ कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय ! सिद्धायसिद्धयोः समोभूत्वा समत्वं योगं उच्चते ॥ - गीता २/४८ 5 ऋग्वेद-१-५-३ : १-१८-७ : १-३४-८ : २-८-१ : ६-५८-३ : १०-१६६-५ । 8 कठोपनिषद-२-६-११ : १-२-१२ । 7 श्वेताश्वतर उपनिषद् ६ और १३ । 8 देखिये-गीता ६ और १३वां अध्याय । ७ देखिये-योगवासिष्ठ, छठा प्रकरण । 10 ब्रह्मसूत्र भाष्य, २-१-३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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