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________________ ईश्वर : एक चिन्तन | ४७ काण्ट ने अपने 'क्रिटिक' और 'प्योर रीजन' में ईश्वर की संसिद्धि के लिए जो अनेकों प्रमाण थे, उन्हें कम करके तीन प्रमाणों में सीमित किया है - ( १ ) विश्व - कारण युक्ति ( २ ) प्रयोजनात्मक युक्ति तथा (३) प्रत्यय सत्ता युक्ति । जब हम 'ईश्वर' शब्द के अर्थ तथा ईश्वर के स्वरूप पर चिन्तन करते हैं तो बचपन के चित्रों से प्रभावित होकर ईश्वर को मनुष्य के रूप में व्यापक तथा गौरवान्वित देखते हैं और उसमें मनुष्य के शरीर व गुण आरोपित करते हैं । ईश्वर को मनुष्य रूप में देखने की इस प्रवृत्ति को 'मानवत्वारोपण' कहते हैं। पर यूनानी दार्शनिक कवि जैनोफेन्स से लेकर आधुनिक आलोचकों तक अनेकों ने इसका उपहास किया है। अधिकांश लोगों के विचार में ईश्वर शब्द का तात्पर्य उस देवी सत्ता से है, जिसे अन्तरात्मा कहते हैं तथा जो सत्य और सर्वशक्तिमान् है और जिसका हमारे प्रारब्ध पर आधिपत्य है । वे उसे जगत् का निर्माणकर्त्ता, नीति-नियामक एवं निर्णायक भी मानते हैं तथा विश्वास करते हैं कि अन्तर्यामी रूप में वह जगत् में सर्वत्र स्थित हैं । ईश्वर एक ऐसी अज्ञात एवं रहस्यपूर्ण अद्भुत शक्ति है जो भयानक होने पर भी सुहावनी है तथा जो स्वयं को प्रकृति की उत्पादक शक्ति में, जीवन और मृत्यु में, तूफान, महासागर, बिजली, सूर्य, प्रकाश, वर्षा आदि में अभिव्यक्त करती है । इसीलिए ईश्वर, निरपेक्ष, शाश्वत, अनन्त, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ तथा सर्वव्यापक आदि गुणों से उसे विभूषित माना जाता है । इमर्सन जैसे महान् दार्शनिकों के लिए ईश्वर, 'बुद्धिमता, पूर्ण शान्ति, सार्वभौम सौन्दर्य तथा शाश्वत' अति-आत्मा है। तो वर्ड्सवर्थ के लिए वह व्याकुल करने वाली सत्ता है । डेकार्ट के अभिमतानुसार प्रत्येक वस्तु पर सन्देह करने वाला मानव अपने आप पर सन्देह नहीं करता । सन्देह एक प्रकार का विचार है जो यह सिद्ध करता है कि पूर्णता जैसी वस्तु अवश्य होनी चाहिए और पूर्णसत्ता भी अवश्य होनी चाहिए । वह पूर्ण सत्ता ईश्वर है । एतदर्थ ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् और परम विशुद्ध होना चाहिए । डेकार्टे ने मानसिक तत्त्व और शारीरिक तत्त्व को पृथक माना था । पर वह किस कारण से है, इसका वह समाधान नहीं कर सका । किन्तु उसके शिष्यों ने मानसिक और दैहिक व्यापारों का कारण ईश्वर माना, जो मन एवं शरीर के व्यापारों में सामंजस्य स्थापित करता है । मॉल ब्रॉक ने बताया- हमारी सम्पूर्ण विचारधाराएं ईश्वर के द्वारा ही उत्पन्न होती हैं । वही सम्पूर्ण विचारधाराओं का केन्द्र बिन्दु है । किन्तु ईश्वर शरीरधारी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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