________________
३२ चिन्तन के विविध आयाम : खण्ड १
संस्कार कर्म को 'अविज्ञप्ति' कहा है। बौद्ध दार्शनिकों ने, जिसे बुद्ध ने अव्याकृत कहकर टालने का प्रयास किया, उस पर भी लिखा है । बुद्ध ने कहा-मानव ही साधना के द्वारा बुद्धत्व प्राप्त करता है, ईश्वर बन सकता है । इसके अतिरिक्त ऐसा कोई ईश्वर नहीं जो सृष्टि-संहार करता हो, और तटस्थ साक्षी भी हो । साधक जब अपूर्ण रहता है, वह किसी न किसी आलम्बन की अपेक्षा रखता है । उस आलम्बन के सहारे बौद्ध दृष्टि से अपने पुरुषार्थ के द्वारा बुद्ध बना जा सकता है और उसका आलम्बन लेकर दूसरे भी बुद्ध हो सकते हैं । इस दृष्टि से बुद्ध आत्मा ही ईश्वर और परमात्मा है । जैन दृष्टि से ईश्वर
भारत के अन्य ईश्वरवादी दार्शनिकों ने आत्मा-जीव से ईश्वर की एक अलग सत्ता मानकर उसे सर्वशक्तिमान की संज्ञा प्रदान की, पर जैन दार्शनिकों ने ईश्वर की आत्मा से अलग विजातीय सत्ता नहीं मानी। उसने मानव को ही अनन्त शक्तिमान माना है। उसने कहा - मानव में अनन्त प्रकाश की रश्मियां बन्द पड़ी हैं। राग-द्वेष आदि विकारों के कारण वह अपने आपको पहचान नहीं पा रहा है । जैन दृष्टि से प्रत्येक आत्मा में स्वरूपतः परमात्म-ज्योति विद्यमान है । चेतन और परम-चेतन ये दो पृथक् तत्त्व नहीं है । अशुद्ध स्थिति से शुद्ध होने पर आत्मा ही परमात्मा बन जाता है। वह परमात्म तत्त्व कहीं बाहर से नहीं आता, अपने ही अन्दर रहा हुआ है । उसका यह वज्र आघोष है कि "अप्पा सो परमप्पा" आत्मा ही परमात्मा है । “तत्त्वम सि" का भी यही अर्थ है। आत्मा केवल आत्मा नहीं है, किन्तु वह स्वयं परमात्मा है, परब्रह्म है, ईश्वर है । आत्मा अपने मूल स्वरूप की दृष्टि से शुद्ध, बुद्ध, निर्विकार और निरंजन है । जब तक उस पर कर्मों का आवरण है, तब तक वह बन्धनों से बद्ध है । पर ज्योंही आत्मा विशिष्ट साधना के द्वारा निर्मल होती है, त्योंही समस्त बन्धनों से विमुक्त होकर अपने स्वकीय शुद्ध मौलिक स्वरूप को प्राप्त कर लेती अर्थात् परमात्मा बन जाती है । पारमार्थिक दृष्टि से संसारस्थ आत्मा में और मुक्त आत्मा-परमात्मा में किंचित्मात्र भी भेद नहीं है । मुक्तात्मा में शक्ति की उत्पत्ति नहीं, किन्तु अभिव्यक्ति होती है । वह शुद्ध स्वरूप कहीं बाहर से नहीं आता, केवल अनावृत हो जाता है।
प्रत्येक संसारी आत्मा सत्तामय भी है और चेतनामय भी है । यदि कमी है तो स्थायी आनन्द की है। जब वह अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाती है तो उसे अक्षय आनन्द, जो आवृत था, उपलब्ध हो जाता है । सत् पहले भी व्यक्त रूप से था , किन्तु चित् एवं आनन्द की व्यक्त रूप से कमी थी। उसकी पूर्ति होते ही वह सच्चिदानन्द बन जाता है । आत्मा से परमात्मा बन जाता है, भक्त से भगवान बन जाता है ।
___ कतिपय भारतीय दर्शनों में ईश्वर के सम्बन्ध में ऐसी धारणा है कि ईश्वर सर्वोपरि सत्ता है, वह जीवात्मा से विलक्षण और एक है, अनादिकाल से वह सर्वसत्तासम्पन्न है । दूसरा कोई ईश्वर नहीं हो सकता । वह जो कुछ भी चाहता है, वही होता है । असम्भव को सम्भव करने की शक्ति उसमें है । वह चाहे तो एक क्षण में विराट्
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org