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ईश्वर : एक चिन्तन | ३१ आचार्यों ने ईश्वर को यज्ञपति के रूप में स्वीकार किया है। साथ ही गीता के ईश्वर समर्पण सिद्धान्त को श्रुतिमूलक मानकर मोक्ष के लिए समस्त कर्मों का फल ईश्वर को समर्पित करने की बात पर भी बल दिया है । कर्म ही अपनी शक्ति से फल देने में समर्थ हैं-इस दृष्टि से कुछ विचारक मीमांसा-दर्शन को निरीश्वरवादी मानने लगे। किन्तु नन्दीश्वर ने कहा है कि ईश्वर के अस्तित्व में श्रेष्ठतम प्रमाण वेद ही है । मीमांसा ग्रन्थों में ईश्वर का खण्डन नहीं अपितु नैयायिकों के उस अनुमान का खण्डन है जिसमें उन्होंने वेद का आश्रय न लेकर केवल कल्पित अनुमान से ईश्वर की सिद्धि की थी। समाज को कार्यशील बनाने हेतु कर्म की प्रधानता इस दर्शन ने बतायी है। अतः इस दर्शन में मन्त्र, देवता, विधिवत् कर्म और सामग्रीजन्य शक्ति, ये ही ईश्वर के कर्तृत्व का स्थान ग्रहण करते हैं ।
चार्वाकदर्शन भारत के प्रमुख दर्शनों में चार्वाक का भी स्थान है। इसका दूसरा नाम 'लोकायत' है। इसके प्रवर्तक बृहस्पति हैं । यह केवल प्रत्यक्ष को प्रमाण मानता है । अनुमान के सम्बन्ध में उसका मन्तव्य है कि उसके पीछे केवल सम्भावना है, तात्त्विक सिद्धान्त नहीं । वह आगम-प्रमाण को भी नहीं मानता। उसका मानना है- वेद, पुराण, त्रिदण्ड धारणा करना, भस्म लगाना आदि उन लोगों की आजीविका है जिनमें न बुद्धि है और न पुरुषार्थ ही है । चार्वाक दर्शन ईश्वर, ब्रह्म और आत्मा आदि किसी भी अतीन्द्रिय तत्त्व को स्वीकार नहीं करता । पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन्हीं चार तत्त्वों के न्यूनाधिक मात्रा में मिलने से सारे विश्व की उत्पत्ति होती है । इसी तरह चार महाभूतों के विशिष्ट अनुपात से चेतना की उत्पत्ति होती है तथा परस्पर संयोग समाप्त होने पर मृत्यु होती है । परलोक जाने वाला आत्मा नामक कोई द्रव्य नहीं है। चार्वाकदर्शन कार्य-कारण, व्याप्य-व्यापक भाव नहीं मानता। वह मोक्ष एवं आत्म-साक्षात्कार की चर्चा को व्यर्थ मानता है । इसलिए उसमें ईश्वर के सम्बन्ध में कोई चिन्तन नहीं किया गया है।
बौद्धदर्शन और ईश्वर बौद्धदर्शन वैदिक परम्परा की तरह ईश्वर को सृष्टिकर्ता व संहर्ता के रूप में नहीं मानता । इसीलिए कितने ही दार्शनिक बौद्ध धर्म को निरीश्वरवादी मानते हैं । "संयुक्तनिकाय" में विश्व अनादि है या सादि है ? अनन्त है या सान्त है ? आत्मा और शरीर भिन्न है या अभिन्न है ? मृत्यु के पश्चात् क्या होता है ? आदि सभी प्रश्नों को अव्याकृत कहा अर्थात् उनके सम्बन्ध में निर्णय असम्भव है । इसलिए बुद्ध सदा ऐसे प्रश्नों के सम्बन्ध में मौन रहे हैं । उन्होंने इस पर चर्चा करना उपयुक्त नहीं समझा । पर यह स्पष्ट है कि बुद्ध ने कर्म को स्वीकार किया है और कर्म की अदृष्ट शक्ति पर चिन्तन किया है । उनका मन्तव्य है-जीवों में जो विचित्रता दृष्टिगोचर है, वह कर्म के कारण है । मानसिक कर्म को बौद्धदर्शन में 'वासना' कहा है और वचनजन्य
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