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________________ वेदान्त की विविध मान्यताएँ तुलनात्मक विवेचन उपनिषद् युग में एक ओर अद्वैत विचारधारा जन-जन के अन्तर्मानस में पनप रही थी तो दूसरी ओर द्वैत विचारधारा का प्रवाह भी प्रवाहित था । इन दो विचारधाराओं के संघर्ष में तीसरा द्वैताद्वैतवाद विभिन्न रूप से अस्तित्व में आ रहा था । सद्द्वैत, द्रव्याद्वैत, गुणाद्वैत ब्रह्माद्वैत, विज्ञानाद्वैत और शब्दाद्वैत जैसे अद्वैत विचार विकसित होते रहे । उस समय आचार्य शंकर के केवलाद्वैतवाद की विचारधारा द्रुतगति से आगे बढ़ी। जिसके कारण द्वैत और द्वैताद्वैत दोनों ने अपनी रीति और नीति से मायाश्रित केवलाद्वैतवाद के विरोध में अपना तेजस्वी स्वर बुलन्द किया । उन्होंने प्रबल प्रमाण और अकाट्य तर्कों से कैवलाद्वैतवाद को अप्रामाणिक सिद्ध करने का महान् प्रयास किया । उनमें उपनिषदों को मानने वाले मूर्धन्य आचार्य भी थे । शुद्धाद्वैत के आधार पर सांख्यदर्शन ने और आचार्य मध्व ने विरोध किया । रामानुज, निम्बार्क, वल्लभ, चैतन्यप्रभृति आचार्यों ने अपनी दृष्टि से वैष्णव परम्परा का आश्रय ग्रहण करके क्रमशः विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत, शुद्धाद्वैत और द्वैत का प्रतिपादन कर आचार्य शंकर के मायावाद का खण्डन किया। भास्कर ने ब्रह्म या ईश्वर तत्व में एकानेकत्व भेदाभेद की संस्थापना की । उस पर कुछ पृथक् रूप से अपनी दृष्टि से विस्तार के साथ वैष्णव और शैव आचार्यों ने गम्भीर विचार कर अपने-अपने मन्तव्यों की स्थापना की । विज्ञानभिक्षु आदि ने ब्रह्माद्वैत की स्थापना कर सांख्ययोग विचार को अद्वैत की परिभाषा में आबद्ध किया। श्रीकण्ठ आदि आचार्यों ने शैव परम्परा के महत्त्व का प्रतिपादन कर ब्रह्म तत्त्व की शिव के रूप में विवेचना की और अपनी दृष्टि से अद्वैत विचारधारा की स्थापना की । आचार्य रामानुज का अभिमत था कि परब्रह्म या नारायण सर्वान्तर्यामी है । वह मंगल गुण का अक्षय भण्डार है । वह कूटस्थ है, पर स्वयं के शक्ति विशेष से अपने अव्यक्त कारणावस्थ चित्-तत्त्व रूप सूक्ष्म शरीर को कार्यावस्थ बनाता है। प्रकृति और जीव तत्त्व जो नारायण के साथ शरीर के रूप में हैं, वे उसकी शक्ति से संचालित होते हैं । यह जड़ चेतनयुक्त जगत माया रूप नहीं है, किन्तु सत्य है । उन्होंने परब्रह्म की ईश्वर या वासुदेव के रूप में स्थापना की। उनका भी मूल आधार ब्रह्मसूत्र और उपनिषद् हैं । उनका यह अभिमत था कि केवल कमनीय कल्पना व अनुमान से ईश्वर के अस्तित्व की स्थापना नहीं की जा सकती । इसके अतिरिक्त उन्होंने सृष्टि रचना ईश्वर से मानी है और उसका स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार किया है । नारायण या ब्रह्म की स्थापना करने में उपनिषदों के अनेक प्रमाण प्रस्तुत किये हैं | आचार्य शंकर ने जहां पर केवलाद्वैतपरक अर्थ किया है, ब्रह्मसूत्रोपनिषदों में रामानुज ने वहाँ पर विशिष्टाद्वैतपरक अर्थ बताकर यह सिद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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