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________________ २६ | चिन्तन के विविध आयाम : खण्ड १ ईश्वर की संस्थापना आचार्य शंकर ने आगम एवं उपनिषदों के आधार पर की है। तर्क उस ईश्वर की संस्थापना में अनुकूल साधन है । आचार्य शंकर ने सच्चिदानन्द ब्रह्म को ही ईश्वर माना है । उन्होंने न्याय, वैशेषिक मान्य स्वतन्त्र ईश्वर निमित्तवाद का और सांख्यसम्मत स्वतन्त्र प्रकृति के कर्तृत्ववाद का निरसन किया है। जो अनीश्वरवादी हैं उन्हें अवैदिक कहकर उनका निषेध किया किया । सारांश यह है कि ब्रह्मवादियों ने ब्रह्म के पूर्ण कर्तृत्व की ईश्वर में संस्था - पना की । आचार्य शंकर से पूर्व अनेक मनीषियों ने ब्रह्मतत्व आचार्य शंकर की तरह कैवलाद्वैती और मायावादी नहीं थे। प्रकृति से पृथक् माना और साथ ही उसे परिणामी भी माना । यह सत्य तथ्य है कि शंकर के पूर्व जो व्याख्याकार हुए हैं, उनके ग्रन्थ पूर्ण रूप से संप्राप्त नहीं होते, किन्तु उनके चिन्तन प्रवाह को विभिन्न आचार्यों ने विकसित किया है। उन आचार्यों प्रपंच का प्रथम स्थान है । उन्होंने ब्रह्मतत्व को परिणामी तथा परमात्मा को समुद्र तरंग न्याय से द्वैताद्वैत सिद्ध किया । उसी परम्परा में शंकरोत्तर युग के वेदान्ताचार्यों में भास्कर का नाम गौरव के साथ लिया जाता है । उन्होंने भी ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखा । उनके मतानुसार ब्रह्म सगुण, सलक्षण, बोधलक्षण और सत्यज्ञानानन्त लक्षण युक्त है । ब्रह्म की दो शक्तियाँ हैं- भोग्य शक्ति और भोक्तृ शक्ति । भोग्य शक्ति आकाश आदि अचेतन जग रूप में परिणत होती है और भोक्तृ शक्ति जीवन में जीव रूप में विद्यमान रहती है । 2 भास्कर ब्रह्मतत्व को भिन्नाभिन्न मानते हैं । उनका मन्तव्य है कि प्रत्येक वस्तु किसी दृष्टि से एक है तो दूसरी दृष्टि से अनेक है । एक ही वस्तु में एकत्व और अनेकत्व दोनों हैं । भले ही वह परिणाम स्वल्पकालीन क्यों न हो तथापि वास्तविक है । जैसे- समुद्र एक होने पर भी तरंगें अनेक हैं वैसे ही ब्रह्म एक होने पर भी जगत् एवं जीवात्मक परिणाम के रूप में अनेक है । भास्कर ने ब्रह्म में ईश्वर की स्थापना की। उन्होंने आचार्य शंकर के सदृश माया को स्थान नहीं दिया । उन्होंने ब्रह्म में अनेक शक्तियाँ मानी हैं । यहाँ पर यह भी स्मरण रखना चाहिए कि जैसे सांख्यदर्शन मूल प्रकृति में तन्मात्र प्रभृति भोग्य सृष्टि तथा बुद्धि और अहंकार आदि रूप भोक्तृत्व शक्ति घटित करता है, वैसे ही भास्कर भी मूल ब्रह्म में इन सभी को घटित करता है । 3 व्याख्याएँ कीं । पर वे उन्होंने ब्रह्म-तत्व को 1 भास्कर भाष्य, २-१-२७ । 2 "ब्रह्म स्वत एव परिणमते तत्स्वाभाव्यात् । यथा क्षीरं दधि भावेस्य अम्भो हिम भावे, न तु तत्राप्यातंचनमाधारभूतं च द्रव्यमपेक्षते ।" - भास्करभाष्य, २।१।२४ | -3 (क) हिस्ट्री ऑफ इण्डियन फिलोसाफी, भाग ३, दास गुप्ता, पृष्ठ ६ । (ख) ब्रह्मसूत्र भास्करभाष्य, २-१-१४, पृष्ठ ६७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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