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साहित्य और कला साहित्य और कला मानव जीवन के लिए वरदान है। साहित्य और कला का सम्बन्ध आज से नहीं आदि काल से रहा है । जो साहित्यकार होगा वह कलाकार अवश्य होगा। दोनों का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है । भारत के महान कवि भर्तृहरि ने साहित्य, संगीत और कला से विहीन व्यक्ति को साक्षात पशु कहा है।
सदगुरुदेवश्री के साहित्य में कविता की गंगा, कथा की यमुना और निबन्ध को सरस्वती का सुन्दर संगम हुआ है। उनकी कृतियों में वाल्मीकि का सौन्दर्य है, कालीदास की प्रेषणीयता है, भवभूति की करुणा है, तुलसीदास का प्रवाह, सूरदास की मधुरता है, दिनकर की वीरता है और गुप्तजी की सरलता ।
वे स्वयं साहित्यस्रष्टा तो हैं ही, पर साहित्यकार को पैदा करने वाले भी हैं । उनके अनेक शिष्य कलम के धनी हैं, जिन्होंने साहित्य की अनेक विधाओं में खुलकर और जम कर लिखा है।
आलोचक से प्यार जिस व्यक्ति के विमल विचारों में गहनता, मौलिकता होती है, उन व्यक्तियों के विचारों की आलोचना भी सहज रूप से होती है । पर महान व्यक्ति उनकी ओर ध्यान न देकर अपने सही लक्ष्य की ओर निरन्तर बढ़ते हैं । गुरुदेवश्री का दृढ़ मन्तव्य है कि व्यक्तित्व निन्दा से नहीं, निर्माण से निखरता है । जो उनकी आलोचना करते या प्रशंसा करते हैं, वे दोनों से समान प्रेम करते हैं। उनके निर्मल मानस पर आलो. चना और स्तुति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। प्रशंसा करने वाले को वे कहते हैंतुम्हारा स्नेह है इसलिए ऐसा कहते हो; और निन्दा-आलोचना करने वाले को कहते हैंतुमने मुझे समझा नहीं है । तुम्हारा विरोध मेरे लिए विनोद है । अनुकूल परिस्थिति में मुस्कराने वाले इस विश्व में बहुत मिलेंगे, पर प्रतिकूल परिस्थिति में भी जो गुलाब के फूल की तरह मुस्करा सके वही महान कलाकार है । गुरुदेवश्री अपनी मस्ती में झूमते हुए कभी-कभी उर्दू के शायर का एक शेर सुनाया करते हैंमंजिले हस्ती में दुश्मन को भी
अपना दोस्त कर। रात हो जाय तो दिखलावे
___ तुझे दुश्मन चिराग ॥ कितना सुन्दर, कितना मधुर और कितना सन्तुलित है उनका विचार ।
वाणी के जादूगर चीनी भाषा के सुप्रसिद्ध धर्मग्रन्थ ताओ उपनिषद् में एक स्थान पर कहा है,
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