SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्मुखी प्रतिभा के धनी उपाध्याय श्री पुष्करमुनि जी महाराज | १०१ सोही उज्जूय भूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई । निव्वाणं परमं जाइ, घयसित्तेव पावए । सद्गुरुदेव नख से शिख तक सरल हैं, निर्दम्भ हैं । जैसे अन्दर हैं वैसे ही बाहर हैं, उनकी वाणी सरल है, विचार सरल हैं और जीवन का प्रत्येक व्यवहार भी सरल है। कहीं पर भी छुपाव नहीं है, दुराव नहीं है । टेढ़े-मेढ़े रास्ते से चलना वे साधना के लिए घातक मानते हैं। उनका स्पष्ट विचार है— "सरल बने बिना सिद्ध गति कदापि नहीं हो सकती।" विनय की प्रधानता सन्त जीवन में जिन सद्गुणों को अनिवार्य आवश्यकता है उसमें विनय भी प्रमुख गुण है । विनय को धर्म का मूल कहा है, तो अहंकार को पाप का मूल बताया है। जिस साधक को अहंकार का काला नाग डस लेता है वह साधना की सुधा पी नहीं सकता। अहंकार और साधना में तो प्रकाश और अंधकार के समान वैर है-- 'तेजस्तिमिरयोरिव' । . गुरुदेव का जीवन विनम्र ही नहीं, अति विनम्र है । आप श्रमण संघ के और अपनी भूतपूर्व परम्परा के वरिष्ट सन्त हैं, तथापि गुणीजनों का उसी प्रकार आदर करते हैं जैसे एक लघ सन्त करता हो। मुझे स्मरण है, परम श्रद्धेय उपाचार्य श्री गणेशीलालाजी म० के साथ श्रमण संघ के वैधानिक प्रश्नों को लेकर आपश्री का उनसे काफी मतभेद हो गया था। उपाचार्य श्री ने श्रमण संघ से व उपाचार्य पद से त्यागपत्र दे दिया था । पर जब आपश्री उदयपुर पथारे तब श्री गणेशीलालजी म० अस्वस्थ थे। आपश्री अपनी शिष्य मण्डली सहित वहाँ पधारे और सविधि वन्दन किया। गुरुदेवश्री की विनम्रता को देखकर श्री गणेशीलालजी म० का हृदय प्रेम से गद्गद् हो उठा और उन्होंने गुरुदेवश्री को उठाकर अपनी छाती से लगा लिया। यह है गुरुदेवश्री के जीवन में विनम्रता । . 'विनम्रता ऐसा श्रेष्ठ कवच है, जिसे आज दिन तक कभी कोई छेद नहीं सका है' यह सूक्ति सर्वथा सत्य है । दया का देवता ___दया सधना का नवनीत है। मन का माधुर्य है । दया की सरस रसधारा से साधक का हृदय उर्वर बनता है और सद्गुणों के कल्पवृक्ष फलते हैं, फूलते हैं । सन्त दया का देवता कहा जाता है । वह स्व और पर के भेदभाव को भुलाकर वात्सल्य और दया का अमृत प्रदान करता है। सन्त का हृदय नवनीत से भी विलक्षण है । नवनीत स्वताप से द्रवित होता है किन्तु पर-ताप से नहीं, किन्तु सन्त-हृदय पर-ताप से ही सदा द्रवित होते हैं, स्व-ताप से नहीं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy