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चतुर्मुखी प्रतिभा के धनी उपाध्याय श्री
पुष्करमुनि जी महाराज
परम श्रद्धय राजस्थान केसरी पूज्य गुरुदेवश्री पुष्कर मुनिजी महाराज स्थानकवासी जैन समाज के जाने-माने और पहचाने हुए एक महान सन्त रत्न हैं । उनका बाह्य व्यक्तित्व जितना नयनाभिराम है, उससे भी अधिक अन्दर का जीवन मनोभिराम है ।
सद्गुरुदेव की बाह्य आकृति को देखकर दर्शक को अजन्ता और एलोरा की भव्य मूर्तियाँ सहज ही स्मरण हो आती है। विशाल देह, लम्बा कद, दीप्तिमान, निर्मल गौर वर्ण, प्रशस्त भाल, उन्नत शीर्ष, दीप्त खल्वाट, मस्तक, नुकीली ऊँची नाक, उन्नत वक्ष, प्रबल मांसल भुजाएँ, तेजपूर्ण शान्त मुख-मण्डल प्रेम-पीयूष वर्षाते हुए उनके दिव्य नेत्र को देखकर दर्शक मुग्ध हुए बिना नहीं रहता। उसमें सागर का विस्तार है, पौरुष का समुद्र ठाउँ मार रहा है एवं दूसरी ओर करुणा का मेघ वर्षण भी हो रहा है । पुरुषत्व और मसृणता का ऐसा पुजीभूत व्यक्तित्व दूसरा देखने को मिलना कठिन है।
आप कभी भी उनकी मंजुल मुखाकृति पर निखरती हुई चिन्तन की दिव्य आभा, प्रभा देख सकते हैं। उदार आँखों के भीतर से छलकती हुई सहज स्नेह-सुधा का पान कर सकते हैं। वार्तालाप में सरस शालीनता, संयमी जीवन की विवेक बिम्बित क्रियाशीलता, जागृत मानस की उच्छल संवेदनशीलता, उदात्त उदारता को परख सकते हैं। प्रेम की पुनीत प्रतिमा, सरसता सरलता की सुन्दर निधि दृढ़ संकल्प और अद्भुत कार्यक्षमता से युक्त गुरुदेवश्री का बाह्य और आभ्यन्तर व्यक्तित्व बड़ा ही दिलचस्प और विलक्षण है। सरलता को प्रतिमूर्ति
श्रमण भगवान महावीर ने कहा कि सरलता साधना का महाप्राण है, चाहे गृहस्थ साधक हो, चाहे संयमी साधक हो, दोनों के लिए सरलता, निष्कपटता, अदंभता आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है । घृतसिक्त पावक के समान सहज सरल साधना ही निर्धूम होती है, निर्मल होती है ।
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