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________________ स्थानकवासी परम्परा के एक आध्यात्मिक कवि श्रीनेमीचन्द जी महाराज | १७ अभिमान का काला नाग जिसे डस जाता है, वह स्व-रूप को भूल जाता है और पर-रूप में रमण करने लगता है, कवि उसे फटकारता हुआ कह रहा है "मिजाजी ढोला, टेढ़ा क्यों चालो छकिया मान में । मदिरा का झोला, ___ जैसे तू आयी रे तोफान में ॥ टेढ़ी पगड़ी बंट के जकड़ी, ढके कान एक आंख । पटा बंक सा बिच्छु डंक सा, रहा दर्पण में मुख झांक ॥ आगमिक तात्विक बातों को भी कवि ने अत्यधिक सरल भाषा में संगीत के रूप में प्रस्तुत किया है । कवि गुणस्थानों की मार्गणा के सम्बन्ध में चिन्तन करता हुआ कहता है "इण पर जीवड़ो रे गुणठाणे फिरे । प्रथम गुणस्थाने रे मारग चार कह्या, तीन चार पंच सातो रे। गुण ठाणे दूजे रे मारग एक छ, पड़ता पैले मिथ्यातो रे ॥" द्रव्य-नौकरी की तरह कवि भाव-नौकरी का वर्णन करता है-सम्यग्दृष्टि जीव से लेकर जिनेश्वर देव तक नौकरी का चित्रण करते हुए कवि लिखता है "काल अनन्ता हो गया सरे, कर्जा बढ़ा अपार । खर्चा को लेखो नहीं सरे, नफा न दीसे लगार रे ।। अति मेंगाई घर में तंगाई, अर्ज करूं तुम साथ । दरबार सूं कुण मिलण देवे, बात मुसुद्दी हाथ ।" लौकिक त्योहार, शीतला का, कवि आध्यात्मिक दृष्टि से सुन्दर विश्लेषण करता है । शीतला का शीतल पदार्थों से पूजन होता है तो कवि क्षमा रूपी माता शीतला का पूजन इस प्रकार करता है "सम्यक्त रंग की मेंहदी है राची, थारा रूप तणो नहीं पार । मद्दव रूप खर की असवारी, खूब किया सिंणगार है ॥ म्हारी भाव भवानी क्षम्या माता ए. पूजू शीतला । दान सीतल तप भावना सरे, देव गुरु ने धर्म । शील शातम ये सातों पूजियां, तूटे आठों ही कर्म है। म्हारी भाव भवानी क्षम्या माता ए पूजू शीतला ॥ स्थानांग सूत्र में वैराग्य-उत्पत्ति के दस कारण बताये हैं । कवि ने उसी बात को कविता की भाषा में इस रूप में रखा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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