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१६ | चिन्तन के विविध आयाम [खण्ड २]
झनझना रही है, वहाँ पर मानवता का नाद भी मुखरित है। जन-जन के मन में आध्यात्मवाद के नाम पर निराशा का संचार करना कवि को इष्ट नहीं है, किन्तु वह आशा और उल्लास से कर्मरिपु को परास्त करने की प्रबल प्रेरणा देता है। पराजितों को विजय के लिए उत्प्रेरित करता है।
मुनिश्री की उपलब्ध सभी रचनाओं का संकलन "नमवाणी" के रूप में मैंने किया है । नेमवाणी का पारायण करते समय पाठक को ऐसा अनुभव होता कि वह एक ऐसे विद्य त ज्योतित उच्च अट्टालिका के बन्द कमरे में बैठा हुआ है, दम घुट रहा है, कि सहसा उसका द्वार खुल गया है और पुष्पोद्यान का शीतल मन्द समीर का झौंका उसमें आ रहा है, जिससे उसका दिल व दिमाग तरो-ताजा बन रहा है । कभी उसे गुलाब की महक का अनुभव होता है तो कभी चम्पा की सुगन्ध का ! कभी केतकी केवड़े की सौरभ का परिज्ञान होता है तो कभी जाई जुही की मादक गन्ध का।
प्रस्तुत कति का निर्माण काल, संवत् १९४० से १६७५ के मध्य का है। उस युग में निर्मित रचनाओं के साथ आपके पद्यों की तुलना की जाय तो ज्ञात होगा कि आपके पद्यों में नवीनता है, मंजुलता है, और साथ ही नया शब्द-विन्यास भी ! मुख्यतः राजस्थानी भाषा का प्रयोग करने पर भी यत्र-तत्र विशुद्ध हिन्दी व उर्दू शब्दों का प्रयोग भी हुआ है । सन्त कवि होने के नाते भापा के गज से कविता को नापने की अपेक्षा भाव से नापना अधिक उपयुक्त है।
नेमवाणी की रचनाएँ दो खण्डों में विभक्त हैं। प्रथम खण्ड में विविध विषयों पर रचित पद हैं, तो द्वितीय खण्ड में चरित्र है। प्रथम खण्ड में जो गीतिकाएँ गई हैं उनमें कितनी ही गीतिकाएँ स्तुतिपरक हैं । कवि का भावुक भक्त हृदय प्रभु के गुणों का उत्कीर्तन करता हुआ अघाता नहीं है । वह स्वयं तो झुम-झूम कर प्रभु के गुणों को गा ही रहा है, साथ ही अन्य भक्तों को प्रेरणा दे रहा है कि तुम भी प्रभु के गुणों को गाओ।
"नवपद को भवियण ध्यान धरो।
यो पनरिया यंत्र तो शुद्ध भरो..." ___ कवि सन्त हैं, संसार की मोह माया में भूले-भटके प्राणियों का पथ-प्रदर्शन करना उनका कार्य है । वह जागृति का सन्देश देता है कि क्यों सोये पड़े हो ? उठो ! जागो ! और अपने कर्तव्य को पहचानो ! कवि के शब्दों में ही देखिएजागृति का सन्देश
"कुण जाणे काल का दिन की
या दिन की, तन की, धन की रे.... एक दिन में देव निपजाई
या द्वारापुरी कंचन की रे........
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