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स्थानकवासी परम्परा के एक आध्यात्मिक कवि
श्री नेमीचन्द जी महाराज
सन्त साहित्य भारतीय साहित्य का जीवन-सत्व है । साधना के अमर-पथ पर निरन्तर प्रगति करते हुए आत्मबल के धनी सन्तों ने जिस सत्य के दर्शन किये उसे सहज, सरल एवं बोधगम्य वाणी द्वारा 'सर्वजन सुखाय, सर्वजन हिताय' अभिव्यक्त किया । जीवन काव्य के रचयिता, आत्मसंगीत के उद्गाता, संतों ने अपनी विमल वाणी में जो अनमोल विचार रत्न प्रस्तुत किये हैं वे युग-युग तक मानवों को अन्तस्श्रेयस की ओर प्रतिपल-प्रतिक्षण बढ़ने की पवित्र प्रेरणा देते रहेंगे । सन्तों के विचारों की वह अमर ज्योति जो हृदयस्पर्शी पदों में व्यक्त हुई है, वह कभी भी बुझ नहीं सकती। उसका शाश्वत प्रकाश सदा जगमगाता रहेगा । उनकी काव्य सुरसरि का प्रवाह कभी सूखेगा नहीं, किन्तु बहता ही रहेगा। जिसका सेवन कर मानव अमरत्व को उपलब्ध कर सकता है।
। कविवर्य नेमीचन्द जी महाराज एक क्रान्तदृष्टा, विचारक संत थे । वे विकारों व रूढ़ियों से लड़े और स्थिति पालकों के विरुद्ध उन्होंने क्रान्ति का शंख फूंका, विपरीत परिस्थितियाँ उन्हें डिगा नहीं सकी, और विरोध उन्हें अपने लक्ष्य से हिला नहीं सका । वे मेरु और हिमाद्रि की तरह सदा स्थिर रहे, जो उनके जीवन की अद्भुत सहिष्णुता, निर्भीकता और स्पष्टवादिता का प्रतीक है । वे सत्य को कट रूप में कहने में भी नहीं हिचके यही कारण है कि उनकी कविता में कबीर का फक्कड़पन है, और आनन्दघन की मस्ती है तथा समयसुन्दर की स्वाभाविकता है। साथ ही उनमें ओज, तेज और संवेग है ।
कवि बनाये नहीं जाते किन्तु वे उत्पन्न होते हैं । यद्यपि कविवर नेमीचन्द जी महाराज ने अलंकार-शास्त्र, रीति ग्रन्थ और कवित्व का विधिवत शिक्षण प्राप्त किया हो ऐसा ज्ञात नहीं होता। जब हृदय में भावों की बाढ़ आयी और वे बाहर निकलने के लिए छटपटाने लगे तब सारपूर्ण शब्दों का सम्बल पाकर कविता बन गयी। कवि पर काव्य नहीं किन्तु काव्य पर कवि छाया है उनके कवित्व में व्यक्तित्व और व्यक्तित्व में कवित्व इस तरह समाहित हो गया है, जैसे जल और तरंग ! उनकी अपनी शैली है, लय है, कम्पन है और संगीत है।
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