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सन्तकवि आचार्यश्री जयमल्लजी | ६१
प्रादुर्भवति नाङ कुरः । न रोहति भवांकुरः ।
तत्वार्थ भाष्यगत अन्तिम कारिका का आचार्य श्री जयमल जी म० ने अपनी
दग्धे बीजे यथात्यन्तं कर्म बीजे तथा दग्धे,
भाषा में इस प्रकार अनुवाद किया है
'दग्ध बीज जिम धरती व्हायां नहि मेले अँकुर जी । तिम हीज सिद्ध जी, जन्म-मरण रो करदी उत्पत्ति दूर जी ॥"
छन्द विधान की दृष्टि से जैन कवि बड़े उदार रहे हैं । शास्त्रीय छन्दों की अपेक्षा लौकिक छन्दों में विविध प्रयोग उन्होंने बड़ी दक्षता के साथ किये हैं ।
आचार्यश्री जयमल्ल जी म० ने दोहा, सोरटा, ढाल आदि में अपनी रचनाएं लिखी हैं | संगीत तत्व इनकी कविता की एक विशेषता है। उनकी सभी रचनाएँ गेय हैं। दालों को भी विभिन्न राग-रागिनियों में लिखा है ।
आचार्यश्री जयमल्ल जी म० की भाषा राजस्थानी है। उस पर कवि का पूर्ण अधिकार है | भाषा भावों के अनुकूल चलती है । उसमें प्रवाह है, माधुर्य है, ओज है, सरलता व सरसता है । उसमें पारिभाषिक शब्दों की बहुलता है ।
वस्तुतः आचार्य श्री जयमल्ल जी म० की रचनाएँ हिन्दी साहित्य भण्डार की अनमोल निधि है । आपकी बहुमूल्य समस्त रचनाएँ उपलब्ध होने पर निश्चय ही भारतीय साहित्य की अभिवृद्धि होगी । ब्रज, भोजपुरी, अवधी, प्रभृति भाषा के साहित्य की अपेक्षा राजस्थानी साहित्य अधिक समृद्ध है । किन्तु परिताप का विषय है कि आज भी अधिकांश राजस्थानी साहित्य अभी तक अप्रकाशित है । भण्डारों की चार दीवारों में बन्द होने के कारण विज्ञों के लिए अनुपलब्ध हैं। आशा है आचार्य श्री जयमल्ल जी महाराज का सम्पूर्ण साहित्य उनके उत्तराधिकारी मुनिवर शीघ्र ही प्रकाश में लायेंगे तो साहित्य की महान् सेवा होगी ।
संक्षेप में आचार्यश्री जयमल्ल जी महाराज का व्यक्तित्व जितना मधुर, आकर्षक एवं गंभीर था कृतित्व भी उतना ही तेजस्वी, बहुमुखी और गौरव पूर्ण था ।
( जयध्वज की प्रस्तावना से )
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