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८८ | चिन्तन के विविध आयाम [खण्ड २]
प्रियतम के अभाव में महल भी जेल के समान है और चारु चन्द्र की चंचल किरणें भी तन को दग्ध करने वाली हैं
"महल अटारी, भए कटारी, चंद-किरण तनूं दाझतिया ॥"
इस प्रकार जय-काव्य में विरह के रसीले चित्र हैं । राजमती अन्त में साधिका बनकर अपने जीवन को परम पवित्र बनाती है। शृंगार-रस शान्तरस की पीठिका बनकर उपस्थित हुआ है।
वात्सल्य रस का अंकन भी अत्यन्त सजीव हुआ है । माता देवकी का मातृहृदय अपने प्यारे पुत्रों को निहार कर किस प्रकार बरसती नदी की तरह उमड़ता है । देखिये कवि ने लिखा है
"तडाक से तूटी कस कंचू तणी रे, भण रे तो छुटी दुधधार रे । हिवडा माहे हर्ष मावे नहीं रे, जाणे के मिलियो मुझ करतार रे ॥ रोम-रोम विकस्यां, तन-मन अलस्यां रे, नयणे तो छूटी आँसू धार रे। बिलिया तो बाँहा माहे मावे नहीं रे, जाणे तूट्यों मोत्यां रो हार रे ।।
वियोग वात्सल्य का वर्णन भी दर्शनीय है। माता देवकी के सात-सात पुत्र हुए, पर उसने किसी का भी लाड़-प्यार नहीं किया, खिलाया पिलाया नहीं, एतदर्थ उसका मातृ हृदय पश्चाताप की आग में झुलस रहा है । अपने आंखों के तारे, नयनों के सितारे श्रीकृष्ण से कहती है
'जाया मैं तुम सरिखा कन्हैया, एकण नाले सात रे। एकण ने हुलरायो नहीं कन्हैया, गोद न खिलायो खण मात रे॥
रोवतो मैं राख्यो नहीं कन्हैया, पालणिये पौड़ाय रे । ___ हालरियो देवा तणी, कन्हैया, म्हारे हंस रही मन मांय रे।"
वियोग वात्सल्य का ऐसा स्पष्ट चित्र महाकवि सूर के काव्य में भी नहीं आ सकता है।
मां देवकी अपने प्यारे लाल गजसुकुमार से किस प्रकार प्यार करती है ? उसकी किलकारियों पर वह झूम उठती है। उसे किस प्रकार खिलाती-पिलाती है, वस्त्र आदि पहनाती है । कवि के शब्दों में देखिये
“जी हो आंखडली अंजावटी, लाल भाल करावण चन्द । जी हो गाला टीकी सांवली, लाला, आलिंगन आनन्द ॥ जी हो पग मांडण ग्रही अंगुली, लाला, ठुमक ठुमक री चाल । जी हो बोलण भाषा तोतली, लाला, रिझावण अतिख्याल ॥
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