________________
सन्तकवि आचार्यश्री जयमल्लजी | ८७ भगवान् नेमिनाथ पाणिग्रहण के लिए जाते हैं । उस समय बन्दी पशुओं के करुण-क्रन्दन को श्रवण कर उनका हृदय करुणा से आप्लावित हो जाता है। उनके हृद्तन्त्री के सुकुमार तार झनझना उठते हैं
'परणी जण में पापज मोटो, जीव हिंसा से सहज खोटो।
ए तो दीसे परतख तोटो, तो लेऊ दया रो ओटो ।।" भ० नेमीश्वर उसी क्षण बन्दी पशुओं को मुक्त कर स्वयं श्रमण बनने की तैयारी करते हैं । मुक्त पशुओं के अन्तर हृदय से आशीर्वचन निकलते हैं
"गगन जातां जीव देवे आसीस के, पशु ने पंखिया जगदीश। . जादव हिवे चिरंजीव हो, बलिहारी तुम बाप ने माय के ॥ पुत्र रतन जिन जनमियो, स्वामी थे सारिया, अम्ह तणा काज के। तीन भवन रो पायजो राज के, शील अखण्डित पालजो ॥"
आचार्यश्री जयमल्ल जी म० के काव्य में वैराग्य-रस की प्रधानता होने पर भी शृंगार रस के संयोग-वियोग का सुन्दर चित्रण उनके काव्य में हुआ है। संयोग का चित्रण संयम लेने के पूर्व नायक सांसारिक विषयों में आसक्त होता है-उस समय
"चन्द्र वदन मृग-लोयणी जी, चपल लोचनी बाल । हरी लंकी मृदु भाषिणीजी, इन्द्रापी-सी रूप रसाल । प्रीतवती मुख आगले जी, मुलकंती मोहन बेल ।
चतुरांना मन मोहती जी, हंस-गमणी सूं करता बहुकेल ।। भगवान् अरिष्टनेमि संयम ग्रहण कर लेते हैं। राजमती उनकी अपलक प्रतीक्षा कर रही है । उनके दर्शन के लिए उसकी आँखें तरस रही हैं । वह प्रिय दर्शन के लिए आतुर है। वह अपनी प्रिय सखियों को उनका पत्र लाने और उपालंभ भेजने के लिए कहती है
तरसत अखियां हुई द्र म-पखियाँ, जाय मिलो पिवसू सखियां । यदुनाथ जी रे हाथ री ल्यावे कोई पतियाँ, नेमनाथजी-दीनानाथ जी।"
राजमती अपने प्रियतम को उपालंभ देती है कि तुम मुझे छोड़कर साधु क्यों बन गये । वह अपनी दासियों से कहती है कि तुम यदि उनका सन्देश लाओगी तो मैं तुम्हें विविध आभूषणों से लाद दूंगी
"जाकू दूंगी जरावरो गजरो, कानन कू चूनी मोतिया । अंगुरी कू मूंदड़ी, ओढ़न कू फमड़ी, पेरण कुँ रेशमी धोतिया॥"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org