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________________ ७४ | चितन के विविध आयाम [खण्ड २] तथा रुद्रट, भोज, जयदेव, आचार्य हेमचन्द्र, वाग्भट, आदि ने भी काव्य की परिभाषाएँ निर्माण की हैं। आचार्य राजशेखर ने लिखा है-शास्त्र को समझने के लिए शब्द की अभिधा शक्ति पर्याप्त है, किन्तु काव्य को समझने के लिए केवल अभिधा ही पर्याप्त नहीं है, कहीं अभिधा, कहीं व्यंजना और कहीं लक्षणा आवश्यक है। काव्य में शब्द और अर्थ दोनों रहते हैं। वे दोनों एक दूसरे पर आधृत हैं । शब्द बिना अर्थ के नहीं रह सकता और अर्थ की अभिव्यक्ति शब्द के बिना सम्भव नहीं है । शब्द और अर्थ दोनों का सहभाव ही काव्य नहीं है। काव्य में रस, अलंकार, रीति, गुण, दोषशून्यता आवश्यक है । काव्य में रसात्मकता होती है। सांसारिक जितने भी आनन्द हैं, वे क्षणिक हैं । प्रथम क्षण में उनकी जैसी अनुभूति होती है, वैसी अनुभूति बाद में नहीं होती। पर काव्य के आनन्द को देश-काल की संकीर्ण सीमा आबद्ध नहीं कर सकते । उस आनन्द की तुलना पुत्रजन्म, धनागमन, पद-प्राप्ति, प्रतिष्ठा की उपलब्धि और प्रमदा की उपलब्धि से भी कहीं अधिक है। आचार्य मम्मट और विश्वनाथ ने काव्य के मुख्य रूप से माधुर्य, ओज और प्रसाद ये तीन गुण माने हैं । भरत और वामन ने दस गुणों का उल्लेख किया है। पर वे सभी गुण इन तीन गुणों में समाविष्ट हो जाते हैं। काव्य की आत्मा रस है । जिसके कारण रस में बाधा उपस्थित होती हो वह दोष है। मम्मट ने पद दोष, पदांश-दोष, वाक्य-दोष, अर्थ-दोष और रस-दोष ये पांच दोष के प्रकार बताये हैं । 'काव्य प्रकाश' के सप्तम उल्लास में उन्होंने उनका विस्तार से विवेचन भी किया है। ___ काव्य के प्राणतत्त्व के सम्बन्ध में काव्य-मनीषियों ने अत्यन्त गंभीरता से 'चिन्तन करते हुए रसवादी, अलंकारवादी, रीतिवादी, ध्वनिवादी, वक्रोक्तिवादी और औचित्यवादी इन छह सम्प्रदायों का उल्लेख किया है। हम यहां पर सभी का विस्तार से विश्लेषण न कर संक्षेप में यही कहना चाहेंगे कि काव्य के विविध रूप, विविध अंग, विविध विधा के सम्बन्ध में हजारों वर्षों से उस पर चिन्तन किया जा रहा है। 1 ननु शब्दाथों काव्यम् । –रुद्रट, काव्यालंकार २ निर्दोषं गुणवत् काव्यमलंकारैरलंकृतम् । रसान्वितं । -भोज, सरस्वती कण्टाभरण । निर्दोषा लक्षणावती सरीतिर्गुणभूषिता। सालंकाररसानेकवृत्तिर्वाक् काव्यनामभाक् ॥ -जयदेव, चन्द्रालोक • हेमचन्द्र, काव्यानुशासन । 5 वाग्भट, काव्यानुशासन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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