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भारतीय साहित्य में काव्य-मीमांसा | ७९
बालटेयर, 1 एबरकोम्बी 2, वाल्टर पेपर, सी० एम० बावरा', डब्ल्यू० पी० केर5, एम० डिक्सन', टिलयार्ड' प्रभृति पाश्चात्य चिन्तकों ने महाकाव्य के विविध पहलुओं पर गहराई से अनुचिन्तन किया है । विस्तार भय से हम उन सब पर यहाँ चिन्तन न कर संक्षेप में यही कहना चाहेंगे कि प्रायः सभी मूर्धन्य मनीषियों ने मूलतत्त्व एक सदृश माना है, यत्किचित् अन्तर महाकाव्य के बाह्य रूप को लेकर ही है । मुख्य तथ्य पाश्चात्य और पौर्वात्य दोनों में समान हैं ।
अतीतकाल से ही जैन मनीषीगण गीर्वाण गिरा में काव्यों का सृजन करते रहे हैं क्योंकि अनुयोगद्वार में प्राकृत और संस्कृत दोनों ही भाषाओं को समान रूप से महत्व दिया है । इसलिए जैनाचार्यों की लेखनी दोनों भाषाओं में अविराम गति से चलती रही । ईसवी सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों में संस्कृत भाषा का अध्ययन अत्यधिक आवश्यक माना जाने लगा। विज्ञों की मान्यता है कि एकादश अंगों की भाषा अर्धमागधी थी और पूर्वो की भाषा संस्कृत थी । इस दृष्टि से संस्कृत और प्राकृत दोनों ही भाषाओं को जैन साहित्य में गौरवपूर्ण पद मिला है। जैन मनी - षियों ने प्राकृत और अपभ्रंश भाषा में विराट साहित्य का सृजन किया तो संस्कृत भाषा में भी विपुल साहित्य सृजन कर अपनी प्रकृष्ट प्रतिभा का परिचय दिया है । यह सत्य है कि जैन परम्परा अध्यात्मप्रधान रही है । उसका मुख्य लक्ष्य मोक्ष रहा है और मोक्ष को प्राप्त करने के लिए धार्मिक साधना आवश्यक है । इस दृष्टि से जैन साहित्य में त्याग, वैराग्य के स्वर अधिक मुखरित हुए हैं ।
जैन काव्य साहित्य की अनेक विशेषताएँ हैं । इसकी कथावस्तु में विस्तार की अपेक्षा गहनता अधिक होती है । सूक्ष्म भावों का आख्यान और वर्णन के साथ ही विश्लेषण प्रधान होता है । कथाओं में पूर्वजन्मों की कथाएँ चमत्कार उत्पन्न करने वाली होती हैं जो किसी पक्ष का मार्मिक उद्घाटन करती हैं । शृंगारिक
1 डा० शंभुनाथ सिंह कृत 'हिन्दी महाकाव्य के स्वरूप - विकास' से उद्धृत, पृ०
१०४ ।
Abercrombie, The Epic, Page 40-41.
8
Appreciation, Page 36.
4 C. M. Bowara, From Virgil to Milton, Page 1.
5 W. P. Ker 'Epic & Romance' Page 17.
6
M. Dixon - English Epic & Heroic Poetry', Page 9.
7 सरस्वती संवाद, महाकाव्य विशेषांक पृ० ३६-४० ॥
8 सक्कया पायया चेव भणिईओ होति दोण्णि वा । सरमण्डलम्मि गिज्जेते पसत्था इसिभासिया ॥
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- अनुयोगद्वारसूत्र, सूत्र १२७
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