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________________ जैन शासन-प्रमाविका अमर साधिकाएँ | ४६ जब भी आप तप करती तब पारणे में तीन पौरसी करती थीं या पारणे के दिन आयंबिल तप करतीं जिससे पारणे में औद्देशिक और नैमिक्तिक आदि दोष न लगे। बाह्य तप के साथ आन्तरिक तप की साधना भी आपकी निरन्तर चलती रहती थी । सेवा भावना आप में कूट-कूट कर भरी हुई थी। आप स्व-सम्प्रदाय की साध्वियों की ही नहीं किन्तु अन्य सम्प्रदाय की साध्वियों की भी उसी भावना से सेवा करती थीं । आपके अन्तर्मानस में स्व और पर का भेद नहीं था। आचार्य गणेशीलालजी महाराज की शिष्याएं केसरकवरजी, जो साइकिल से अक्सिडेण्ट होकर सड़क पर गिर पड़ी थीं, सन्ध्या का समय था, आप अपनी साध्वियों के साथ शौच भूमि के लिए गयी। वहां पर उन्हें दयनीय स्थिति में गिरी हुई देखा। उस समय आपके दो चद्दर ओढ़ने को थीं, उनमें से आपने एक चादर की झोली बनाकर और सतियों की सहायता से स्थानक पर उठाकर लायीं और उनकी अत्यधिक सेवा-सुश्रूषा की । इसी प्रकार महासती नाथकुवरजी आदि की भी आपने अत्यधिक सेवा सुश्रूषा को और अन्तिम समय में उन्हें तंथारा आदि करवाकर सहयोग दिया। आचार्य हस्तीमलजी महाराज की शिष्याएँ महासती अमरकुवर जी, महासती धनकुवरजी, महासती गोगाजी आदि अनेक सतियों की सुश्रूषा की और संथारा आदि करवाने में अपूर्व सहयोग दिया। सन् १९६३ में अजमेर के प्रांगण में श्रमण संघ का शिखर सम्मेलन हुआ। उस अवसर पर वहाँ पर अनेक महासतियाँ एकत्रित हुई। उन सभी ने चिन्तन किया कि सन्तों के साथ हमें भी एकत्रित होकर कुछ कार्य करना चाहिए। उन सभी ने वहाँ पर मिलकर अपनी स्थिति पर चिन्तन किया कि भगवान महावीर के पश्चात् आज दिन तक सन्तों के अधिक सम्मेलन हुए, किन्तु श्रमणियों का कोई भी सम्मेलन आज तक नहीं हुआ और न श्रमणियों की परम्परा का इतिहास भी सुरक्षित है। भगवान महावीर के पश्चात् साध्वी परम्परा का व्यवस्थित इतिहास न मिलना हमारे लिए लज्जास्पद है जबकि श्रमणों की तरह श्रमणियों ने भी आध्यात्मिक साधना में अत्यधिक योगदान दिया है । इसका मूल कारण है एकता व एक समाचारी का अभाव । अतः उन्होंने श्री वर्धमान चन्दनबाला श्रमणी संघ का निर्माण किया और श्रमणियों के ज्ञान दर्शन चारित्र के विकास हेतु इक्कीस नियमों का निर्माण किया । उसमें पच्चीस प्रमुख साध्वियों की समिति का निर्माण हुआ । चन्दनबाला श्रमणी संघ की प्रवर्तिनी पद पर सर्वानुमति से आपश्री को नियुक्त किया गया जो आपकी योग्यता का स्पष्ट प्रतीक था। राजस्थान प्रान्त में रहने के बावजूद भी आपका मस्तिष्क संकुचित विचार से ऊपर उठा हुआ था। यही कारण है कि सर्वप्रथम राजस्थान में साध्वियों को संस्कृत प्राकृत और हिन्दी भाषा के उच्चतम अध्ययन करने के लिए आपके अन्तनिस । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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