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________________ जैन शासन-प्रमाविका अमर साधिकाएं | ४७ किया। एक बार आपको प्रातःकाल सपना आया-आपने देखा कि एक घड़े के समान वृहत्काय मोती चमक रहा है । अतः जागृत होते ही आपने स्वप्न-फल पर चिन्तन करते हुए विचार किया है अब मेरा एक दिन का ही आयु शेष है । अतः संथारा कर अपने जीवन को पवित्र बनाऊँ । आपने संथारा किया और एक दिन का संथारा कर स्वर्गस्थ हुईं। (९) परम विदुषी महासती श्री सोहनकुंवरजी-आपश्री की जन्मस्थली उदयपुर के सन्निकट तिरपाल गांव में थी और जन्म सं० १६४६ (सन् १८९२) में हुआ। आपके पिताश्री का नाम रोडमलजी और माता का नाम गुलाबदेवी था और आपका सांसारिक नाम खमाकुवर था । नौ बरस की लघवय में ही आपका वाग्दान डुलावतों के गुडे के तकतमलजी के साथ हो गया। किन्तु परम विदुषी महासती रायकुंवरजी और कविवर्य पं० मुनि नेमीचन्दजी महाराज के त्याग-वैराग्ययुक्त उपदेश को श्रवण कर आपमें वैराग्य भावना जाग्रत हुई और जिनके साथ वाग्दान किया गया था उनका सम्बन्ध छोड़कर अपनी मातेश्वरी और अपने जेष्ठ भ्राता प्यारेलाल और भैरूलाल के साथ क्रमशः महासती राजकुवरजी और कविवर्य नेमीचन्दजी महाराज के पास जैनेन्द्री दीक्षा ग्रहण की। आपकी दीक्षास्थली पचभद्रा (बाडमेर) में थी और दोनों ने शिवगंज (जोधपुर) में दीक्षा ग्रहण की। उस समय आपके भ्राताओं की उम्र १३ और १४ वर्ष को थी और आपकी उम्र : वर्ष की । दोनों भ्राता बड़े ही मेधावी थे। कुछ ही वर्षों में उन्होंने आगम साहित्य का गहरा अध्ययन किया। किन्तु दोनों ही युवावस्था में क्रमश : मदार (मेवाड़) और जयपुर में संथारा कर स्वर्गस्थ हुए। खमाकुवर का दीक्षा नाम महासती सोहनकुवरजी रखा गया । आप बालब्रह्मचारिणी थीं। आपने दीक्षा ग्रहण करते ही आगम साहित्य का गहरा अध्ययन प्रारम्भ किया और साथ ही थोकड़े साहित्य का भी । आपने शताधिक रास, चौपाइयाँ तथा भजन भी कण्ठस्थ किये । आपकी प्रवचन शैली अत्यन्त मधर थी। जिस समय आप प्रवचन करती थीं विविध आगम रहस्यों के साथ रूपक, दोहे, कवित्त श्लोक और उर्दू शायरी का भी यत्र-तत्र उपयोग करती थीं। विषय के अनुसार आपकी भाषा में कभी ओज और कभी शान्तरस प्रवाहित होता था और जनता आपके प्रवचनों को सुनकर मन्त्रमुग्ध हो जाती थी। अध्ययन के साथ ही तप के प्रति आपकी स्वाभाविक रुचि थी। माता के संस्कारों के साथ तप की परम्परा आपको विरासत में मिली थी। आपने अपने जीवन की पवित्रता हेतु अनेक नियम ग्रहण किये थे, उनमें से कुछ नियमों की सूची इस प्रकार है(१) पंच पर्व दिनों में आयंबिल, उपवास, एकासन, नीवि आदि में से कोई न कोई तप अवश्य करना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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