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________________ ३६ | चिन्तन के विविध आयाम [खण्ड २] महासती ज्ञानकुवरजी-महासती छगनकुंवरजी की एक शिष्या विदुषी महासती ज्ञान कुवरजी थीं । आपका जन्म वि० सं० १६०५ उम्मड ग्रान में हुआ और बम्बोरा के शिवलालजी के साथ आपका पाणिग्रहण हुआ था। सं० १९४० मे आपके एक पुत्र हुआ जिसका नाम हजारीमल रखा गया। आचार्यप्रवर पूज्यश्री पूनमचन्दजी महाराज तथा महासती छगनकुवरजी के उपदेश से प्रभावित होकर आपने १६५० में महासती श्रीछगनकुवरजी के पास जालोट में दीक्षा ग्रहण की । आपके पुत्र ने ज्येष्ठ शुक्ला १३ रविवार के दिन समदड़ी में दीक्षा ग्रहण को। उनका नाम ताराचन्दजी महाराज रखा गया । वे ही आगे चलकर उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी महाराज के गुरु बने । महासती ज्ञानकुवरजी महाराज बहुत ही सेवाभावी तथा तपोनिष्ठा साध्वी थीं। महासती श्री गुलाबकुवरजी के उदयपुर स्थानापन्न विराजने पर आपश्री ने वहाँ वर्षों तक रहकर सेवा की और वि० सं० १९८७ में उदयपुर में संथारा सहित उनका स्वर्गवास हुआ। ___ महासती फूलकुवरजी-~-आपका जन्म उदयपुर राज्य के दुलावतों के गुढ़े में वि० सं० १९२१ में हुआ। आपके पिता का नाम भगवानचन्दजी और माता का नाम चुन्नीबाई था । लघुवय में आपका पाणिग्रहण तीरपाल में हुआ। किन्तु कुछ समय के पश्चात् पति का देहान्त हो जाने से महासती छगनकुवरजी के उपदेश को सुनकर विरक्ति हुई और १७ वर्ष की उम्र में आपने प्रव्रज्या ग्रहण की । आपकी बुद्धि बहुत ही तीक्ष्ण थी । आपने अनेकों शास्त्र कंठस्थ किये । आपकी प्रवचन शैली भी अत्यन्त मधुर थी। आपके प्रवचन से प्रभावित होकर निम्न शिष्याएँ बनीं-(१) महासती माणकवरजी, (२) महासती धूलकुवरजी, (३) महासती आनन्दकुवरजी, (४) महासती लाभकुवरजी, (५) महासती सोहनकुवरजी, (६) महासती प्रेमकुवरजी और (७) महासती मोहनकुवरजी । आपने पचास वर्ष तक संयम की उत्कृष्ट साधना की। वि० सं० १९८६ में आपको ऐसा प्रतीत होने लगा कि मेरा शरीर लम्बे समय तक नहीं रहेगा। आपने अपनी शिष्याओं को कहा कि मुझे अब संथारा करना है । किन्तु शिष्याओं ने निवेदन किया कि अभी आप पूर्ण स्वस्थ हैं, ऐसी स्थिति में संथारा करना उचित नहीं है । उस समय आपने शिष्याओं के मन को दुःखाना उचित नहीं समझा । आपने अपने मन से ही फाल्गुन शुक्ला बारस के दिन संथारा कर लिया । दूसरे दिन जब साध्वियाँ भिक्षा के लिए जाने लगी, तब उन्होंने आपसे निवेदन किया कि हम आपके लिए भिक्षा में क्या लावें तब आपने कहा कि मुझे आहार नहीं करना है । तीन दिन तक यही क्रम चला। चौथे दिन साध्वियों के आग्रह पर आपने स्पष्ट किया कि मैंने संथारा कर लिया है । चैत्र बदी अष्टमी को बारह दिन का संथारा पूर्ण कर आप स्वर्ग पधारी । महासती माणकवरजी-आपका जन्म उदयपुर राज्य के कानोड ग्राम में वि०सं० १६१० में हुआ। आपकी प्रकृति सरल, सरस थी । सेवा की भावना अत्यधिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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