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पट्टावलो-पर्यवेक्षण | २३ १३. आर्य वज्र
१४. आर्य रथ १५. आर्य पुष्पगिरि १६. आर्य फल्गुमित्र १७. आर्य धनगिरि
१८. आर्य शिवभूति १६. आर्य भद्र
२०. आर्य नक्षत्र २१. आर्य रक्ष
२२. आर्य नाग २३. जेष्ठिल
२४. आर्य विष्णु २५. आर्य कालक
२६. संपलित तथा आर्य भद्र २७. आर्य वृद्ध
२८. आर्य संघपालित २६. आर्य हस्ती
३०. आर्य धर्म ३१. आर्य सिंह
३२. आर्य धर्म ३३. आर्य शांडिल्य
३४. देवद्धिगणी तात्पर्य यह है कि स्थविरावलियों में पृथकता रही है इसलिए प्रबुद्ध पाठक "पट्टावली प्रबन्ध संग्रह" का पारायण करते समय एक ही विषय में और एक ही व्यक्ति के सम्बन्ध में विभिन्न पट्टावलियों में विभिन्न मत देख कर भ्रमित न हों किन्तु समन्वय की दृष्टि से, तटस्थ बुद्धि से सत्य-तथ्य को समझने का प्रयास करें।
यह पूर्ण सत्य है कि श्रमण भगवान महावीर से देवद्धिगणी क्षमाश्रमण तक एक विशुद्ध परम्परा रही है। उसके पश्चात् चैत्यवासियों का प्रभुत्व जैन परम्परा पर छा जाने से परम्परा का गौरव अक्षुण्ण न रह सका । आचार्य अभयदेव ने उस स्थिति का चित्रण इस प्रकार किया है 1--
देवद्धिगणी क्षमाश्रमण तक की परम्पग को मैं भाव परम्परा,मानता है। इसके पश्चात् शिथिलाचारियों ने अनेक द्रव्य परम्पराओं का प्रवर्तन किया और वे द्रव्य परम्पराएँ द्रौपदी के दुकल की तरह निरन्तर बढ़ती रहीं। धर्म के मौलिक तत्वों के नाम पर विकार, असंगतियाँ और साम्प्रदायिक कलहमूलक धारणाएँ पनपती रहीं।
सोलहवीं शती वैचारिक क्रान्तिकारियों का स्वर्ण युग है । इस काल में भारत की प्रत्येक परम्परा में अनेक क्रांतिकारी नर-रत्न पैदा हुए जिन्होंने क्रांति की शंखध्वनि से जन-जीवन को नवजागरण का दिव्य संदेश दिया। कबीर, धर्मदास, नानक, संत रविदास, तरणतारण स्वामी और वीर लोंकाशाह ऐसे ही क्रांतिकारी थे। यह
1 देवढि खमासमणजा
परंपरं भावओ वियाणेमि । सिढिलायारे ठविया,
दव्वेण परंपरा बहुहा ।।
-आगम अठ्ठतरी, गा. १४
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