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पट्टावली-पर्यवेक्षण | २१ आर्य पढिमल, आर्य जयन्त और आर्य तापस हैं तो द्वितीय में आर्य वज्रसेन, आर्य पद्म और आर्य रथ ।।
इस अन्तर का मूल कारण यह है कि श्रमण भगवान् महावीर के पश्चात् अनेक बार भारत भूमि में दुष्काल पड़े, जिसमें उत्तर भारत में जो श्रमण संघ विचरण कर रहा था उसे विवश होकर समुद्र तटवर्ती प्रदेश की ओर बढ़ना पड़ा, पर जो वृद्ध थे तथा शारीरिक दृष्टि से चलने में असमर्थ थे वहीं पर विचरते रहे, जिससे श्रमण संघ दो भागों में विभक्त हुआ। प्रथम दुष्काल की परिसमाप्ति पर वे सभी पुनः सम्मिलित हुए किन्तु सम्प्रति मौर्य के समय और आर्य वज्र के समय दुर्भिक्ष के कारण जो श्रमण संघ दक्षिण, मध्य भारत व पश्चिम भारत में आया था वह दीर्घकाल तक उत्तर भारत में विचरने वाले श्रमण संघ से न मिल सका, जिसके फलस्वरूप उत्तर में विचरण करने वालों का पृथक् संच स्थविर हुआ और दक्षिण तथा पश्चिम प्रान्त में विचरण करने वालों का दूसरा स्थविर हुआ । इस कारण स्थविरावली में नामों में पृथकता आई है । दाक्षिणात्य श्रमण संघ १७० वर्ष तक अपनी स्वतन्त्र शासन पद्धति चलाता रहा, उसके पश्चात् विक्रम की द्वितीय शताब्दी के मध्य में पुन: वह उत्तरीय श्रमण संघ में सम्मिलित हो गया।
यह पहले लिखा जा चुका है कि आगमों की तीन वाचनाएँ हुई।
प्रथम वाचना आर्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में मथुरा में हुई थी और इस वाचना में उत्तर प्रदेश और मध्य भारत में विचरण करने वाले श्रमण ही एकत्र हुए थे । यह वाचना माथुरी वाचना के रूप से विश्रुत हुई।
दूसरी वाचना आर्य नागार्जुन के नेतृत्व में दाक्षिणात्य प्रदेश में विचरण करने वाले श्रमणों की वल्लभी में हुई थी। पर दोनों वाचना में एक दूसरे से, एक दूसरे नहीं मिले।
तीसरी वाचना में दोनों ही वाचना के प्रतिनिधि उपस्थित हुए। माथुरी वाचना के प्रतिनिधि देवद्धिगणी थे और वालभी वाचना के प्रतिनिधि कालकाचार्य थे। जिन पाठों के सम्बन्ध में दोनों शंका रहित थे वे पाठ एकमत से स्वीकार कर लिये गये और जिनमें मतभेद था, उन्हें उस रूप में स्वीकार कर लिया गया।
माथुरी वाचना के अनुसार स्थविर-क्रम इस प्रकार है : १. सुधर्मा
२. जम्बू ३. प्रभव
४. शय्यम्भव 1 थेरस्स णं अज्जवइरस्स गोतम सगोत्तस्स इमे तिन्नि थेरा अन्तेवासी अहावच्चा अभिन्नाया होत्था, तंजहा-थेरे अज्जवइरसेणे, थेरे अज्ज पउमे, थेरे अज्जरहे ।
-कल्प० स्थविरावली सू० २२१ ।
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