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________________ १४ | चिन्तन के विविध आयाम [ खण्ड २ ] विधियुक्त नमस्कार किया । भावों की विशुद्धि से उनको एक समय क्षायिक सम्यक्त्व की उपलब्धि हुई, जिननाम पुण्यबन्ध के दलिक उन्होंने एकत्र किये | 2 अन्तकृत् दशांग के अनुसार श्रीकृष्ण के तीन भव होते हैं । एक भव कृष्ण का, दूसरा भव तृतीय पृथ्वी का और तीसरा भव बारहवाँ अमम नामक तीर्थंकर का है । यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि प्रस्तुत अवसर्पिणी काल में आयु, अवगाहना, गण, गणधर परिवार एक दूसरे तीर्थंकर का अन्तर आदि सभी बातें जैसी अन्तिम तीर्थंकर की होती है वैसी ही उत्सर्पिणी काल में प्रथम तीर्थंकर की होती हैं । जैसे गत चौबीसी में पार्श्वनाथ का वर्णन था वैसे ही आगामी उत्सर्पिणी में दूसरे तीर्थंकर सूरदेव का वर्णन होगा । अनुक्रम से गत चौबीसी के ऋषभदेव के वर्णन के 1 (क) द्वारकाधिपतिः कृष्ण-वासुदेवो महद्धिकः । भक्त श्रीनेमिनाथस्य सद्धर्मः श्रावकोऽभवत् ॥ अष्टादशसहस्राणि वंदमानोऽन्यदामुनीन् । -- काललोक प्रकाश, सर्ग ३४, श्लो० ५७-५८ द्वादशावर्तवन्दनम् । (ख) अन्यदा सर्वसाधूनां 3 कृष्णो ददौ नृपास्त्वन्ये निर्वीर्यस्त्ववतस्थिरे ॥ 2 ( क ) स वंदनेन गुरुणा सम्यक्त्वं क्षायिकं दधौ । सत्यमक्षितियोग्यानि दुः कृतान्यपवर्त्तयन् ॥ चक्रे तृतीयक्ष्मार्हाणि तीर्थकृन्नाम् चार्जयत् । तथोक्त' - तित्यरयत्तं सम्मत्त खाइयं सत्तमीइ तइयाए वंदणणं विहिणावद्ध च दसारसीहेण ! -- त्रिषष्टि०, ८।१०।२४० । -- काललोकप्रकाश, सर्ग ३४, श्लो० ५८, ६०, पृ० ६३४ | (ख) सर्वज्ञोऽप्यवदत् कृष्ण बहु भवतार्जितम् । पुण्यं क्षायिकसम्यक्त्वं तीर्थ कृन्नाम कर्म च । उद्धृत्य सप्तमावन्यास्तृतीयनरकोचितम् ॥ Jain Education International - त्रिषष्टि०, ८।१०।२४३-२४४ । एवं खलु तुमं देवाप्पिया ! तच्चाओ पुढवीओ उज्जतियाओ अनंतरं उवट्टित्ता इहेव जम्बूदीवे भारहे वासे आगमेसाए उस्साप्पिणीए पुडेसु जणवतेसु सयदुवारे बारसमे अममे नामं अरहा भविस्ससि तत्थ तुमं बहूई वासाई केवलपरियायं पाउणत्ता सिज्झिहिसि । — अन्तकृत् दशांग, ५।१, पृ० २३०. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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