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________________ १२ | चिन्तन के विविध आयाम [खण्ड २] इस प्रकार दर्शन एवं धर्म की सांस्कृतिक परम्पराओं का पर्यवेक्षण करने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जैन मनीषियों ने अहिंसा, अनेकान्त, सर्वभूत समानता (अत्त समे मन्निज्ज छप्पिकाए) ईश्वरकर्तृत्व का अस्वीकार करके भी कर्म सिद्धान्त को जगत् व्यवस्था का नियन्ता तथा नैतिक जीवन का मूलाधार माना है । जीवन में ज्ञान का महत्व स्वीकार किया है, ज्ञान को प्रथम स्थान दिया है, किन्तु आचार की कतई उपेक्षा नहीं की है। बल्कि दोनों ज्ञान-क्रिया को जीवन-शरीर के दो चरण स्वीकार कर समान महत्व दिया है। अथवा चक्षु और चरण के रूप में दोनों को ही अत्यावश्यक माना है । अतः हम कह सकते हैं, भारतीय चिन्तन की सांस्कृतिक धारा को जैन मनीषियों ने सतत् प्रवहमान और निर्मल निर्दोष रखने का प्रयत्न किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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