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सांस्कृतिक परम्परा: तुलनात्मक अध्ययन | ११
धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय ये केवल लोक में ही हैं अतः जीव लोकाग्रभाग पर अवस्थित हो जाता है । अलोक में केवल आकाश ही है, अन्य कोई भी द्रव्य नहीं है । कर्मों की अधिकता के कारण ही जीव इस विराट् विश्व में परिभ्रमण कर रहा है । कर्म आत्मा से पृथक है | संसार में जो विविधता दृष्टिगोचर हो रही है उसका मूल कारण कर्म है । कर्म से ही पुनर्जन्म है । प्रवाह की दृष्टि से कर्म जीव के साथ अनादिअनन्त काल से है । आयु पूर्ण होने पर गतिनामकर्म के अनुसार जीव चार गतियों में से किसी एक गति में जन्म ग्रहण करता है और एक शरीर का परित्याग कर अन्य शरीर को धारण करता है । आनुपूर्वी नामकर्म के कारण वह जीव उस स्थान पर जाता है। गत्यन्तर के समय तेजस और कार्मण ये दो शरीर उसके साथ रहते हैं । वह जहाँ पर जन्म ग्रहण करता है वहाँ पर यदि वह मनुष्य और तिर्यंच बनता है तो दारिक शरीर को धारण करता है और यदि नरक व देवगति में जाता है तो वैक्रिय शरीर धारण करता है । कर्मबंध के मिथ्यात्व अव्रत, प्रमाद, कषाय व योग ये पाँच कारण हैं जिनसे कर्म वर्गणा के पुद्गल खिंचे चले आते हैं । जितने कारण कम होते जायेंगे उतनी ही कर्मबंधन में शिथिलता आयेगी । मुक्त होने के लिए कर्मों के प्रवाह को रोकना होगा और पूर्वोपार्जित कर्मों को नष्ट करने के लिए साधना में प्रबल पुरुषार्थ करना होगा । अन्य दार्शनिकों का यह मन्तव्य है कि जीव और शरीर का सम्बन्ध होने पर भी जीव में किसी भी प्रकार का विकार नहीं आता । जीव तो शाश्वत है। जो कुछ भी विकार हग्गोचर होता है वह जीव सम्बन्धी अचेतन प्रकृति का है। ज्ञान आदि जितने भी गुण हैं वे जीव के नहीं, प्रकृति के हैं । पुरुष और प्रकृति में भेदज्ञान होने से प्रकृति अलग हो जाती है । वही मोक्ष है अर्थात् संसार और मोक्ष ये जड़ तत्व के हैं और पुरुष में आरोपित हैं, पुरुष तो अपरिणामी नित्य है । चार्वाक दर्शन का मन्तव्य है कि पांच महाभूतों से जीव की उत्पत्ति होती है और उनके नष्ट हो जाने से मृत्यु होती है । अतः पुनर्जन्म और मोक्ष का कोई प्रश्न ही नहीं है । इस प्रकार प्रस्तुत दोनों विचारधारा के लिए जैन मनीषियों ने गहराई से चिन्तन किया है और अनेकान्त दृष्टि से उसका समाधान किया है कि द्रव्य दृष्टि से जीव नित्य है और पर्याय दृष्टि से अनित्य है । कर्मजन्य पर्याय को नष्टकर जीव मुक्त होता है । द्रव्य और पर्याय की मान्यता भी जैन दर्शन की अपनी मान्यता है । द्रव्य और पर्याय को क्रमशः नित्य और अनित्य मान कर उसने संसारावस्था और मुक्तावस्था का समाधान किया है। जैन दर्शन ने प्रमाण माना है जिससे पुनर्जन्म में किसी भी प्रकार की बाधा शरीरव्यापी होने से शरीर के प्रत्येक कण-कण में उसे सुख व दुःख की अनुभूति
होती है ।
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स देह परिणामो - द्रव्य संग्रह |
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आत्मा को शरीर
नहीं आती और
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