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________________ ५८ भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण (E) अरिष्टनेमि : वहां से आयु पूर्ण होने पर शंख राजा का जीव च्यवकर महाराजा समुद्रविजय की पत्नी शिवादेवी की कुक्षि में अरिष्टनेमि के रूप में उत्पन्न हुआ। ३७ यशोमती का जीव, राजा उग्रसेन की कन्या राजीमती हुआ।३८ - तीर्थंकरत्व यह एक गरिमामय महत्वपूर्ण पद है। वह सहज सुकृतसंचय से प्राप्त होता है। किसी भौतिक कामना विशेष से तप करना जैन दृष्टि में निषिद्ध माना है। उसे जैन परिभाषा में निदान कहा है, और वह विराधना का प्रतीक है। जैन दृष्टि से वीतरागता के लिए ही प्रयत्न करना चाहिए।४० प्रसुप्त अमृत तत्त्व को जागृत करने के लिए विचार को आचार के रूप में परिणत करना चाहिए । बीजअंकुर में बदलकर ही विराट् वृक्ष बनता है, तभी उसमें फल-फूल पदा होते हैं। जब विचार-आचार में परिणत होता है तभी अपूर्व ज्योति प्रकट होती है। जैन दर्शन आत्मा की अनन्त आत्म-शक्ति को जागृत करने का सन्देश देता है कहा गया है-तुम्हारे अन्दर विराट् शक्तियां छिपी हैं, उन शक्तियों को प्रकट करो। आत्मा और परमात्मा में कोई मौलिक भेद नहीं है। जो आत्मा है वही परमात्मा है। यदि कुछ अन्तर है तो वह इतना ही कि आत्मा कर्मों के बंधन में बंधी है। माया और अविद्या में बंधी है। जब आत्मा कर्म, माया, और वासना के बंधनों को तोड़ देती है तब परमात्मा बन जाती है। भगवान अरिष्टनेमि किस प्रकार साधना कर सिद्ध बनते हैं, इसका वर्णन अगले अध्याय में प्रस्तुत है। ३७, (क) त्रिषष्टि ० ८।५ (ख) कल्पसूत्र १६२ ३८. त्रिषष्टि० ८६ ३६. दशाश्रुतस्कंध, निदान प्रकरण ४०. दशवैकालिक अ० ६, उ०४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003179
Book TitleBhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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