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________________ अरिष्टनेमिः पूर्वभव क्रोध से सुमित्र मुनि के कलेजे में तीर मारा, मुनि समभाव में स्थिर रहे और आयु पूर्ण कर ब्रह्मदेवलोक में इन्द्र के सामानिक देव बने ।४० पद्म प्रसन्नता से झूमता हुआ अपने महल की ओर आ रहा था कि मार्ग में कृष्ण सर्प ने उसको डंसा, और वह आर्तध्यान-रौद्रध्यान में मरकर सातवें नरक में उत्पन्न हुआ।४१ ___ सुमित्र मुनि के स्वर्गस्थ होने के समाचार श्रवण कर चित्रगति उसी समय सिद्धायतन पहुँचा। उस समय राजा अनंगसिंह भी अपनी पुत्री रत्नवती को लेकर वहाँ पर आया। सुमित्र मुनि का जीव, जो देव बना था, अवधिज्ञान से अपने पूर्व स्नेही चित्रगति को देखकर वहाँ आता है और चित्रगति के शोक को दूर करने के लिए उस पर पुष्पों की वृष्टि करता है और फिर स्वयं प्रकट होकर कहता है- मित्र ! तुम्हारे कारण से हो उस समय मुझ जीवन दान मिला, जिसके फलस्वरूप मैं मुनि बनकर महधिक देव बना। चित्रगति ने कहा-मित्र ! तुम्हारे ही कारण मुझे श्रावक धर्म की उपलब्धि हुई ।४२ चित्रगति के तेजस्वी रूप को देखकर पूर्वभवों के स्नेह-सम्बन्ध के कारण रत्नवती प्रम-विह्वल हो गई। किन्तु उस समय राजाअनंग ने विवाह के प्रसंग की चर्चा करना अनुचित समझा ।४३ सभी वहाँ से विसर्जित हो गये। __अनंगसिंह ने अपने मंत्री को चक्रवर्ती सम्राट् सूरसिंह के पास भेजा और चित्रगति के साथ रत्नवती के पाणिग्रहण की प्रार्थना की। सरसेन ने स्वीकृति प्रदान की। योग्य समय में चित्रगति का विवाह रत्नवती के साथ सम्पन्न हुआ।४४ धनदेव और धनदत्त के ४०. त्रिषष्टि० ८।१।२१४-२२२ । ४१. प्रणश्व गच्छन् पद्मोऽपि दष्टः कृष्णाहिना निशि । विपद्य नारको जज्ञ सप्तम्यां नरकावनौ ।। -त्रिषष्टि० ८।११२२३ ४२. त्रिषष्टि० ८।१।२२४-२३३ ४३. त्रिषष्टि० ८।१।२३६ ४४. त्रिषष्टि० ८।१।२४१-२४५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003179
Book TitleBhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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